Thursday, February 27, 2014

जुगलबंदी (कुछ दोहे कुछ गीत) २८ फरवरी, २०१४



अगन में अगन
जल में जल मिल जइहै,
अगन में अगन प्यारे!
रोके से न रुकिहै,
करो सौ जतन प्यारे!

वाणी है संतन की
वेदन, पुरानन की.
का है जरूरत अब
भटकन, भटकावन की.

बंद द्वार खुल जइहैं
होई मुकत मन प्यारे!

परम शान्ति में एक दिन
होगी जब गति भंग
श्वेत-श्याम चादर यह
होगी सब एक रंग

माटी में माटी फिर
पवन में पवन प्यारे!



मन पत्थर का

एक पाट  बुद्धि का
एक पाट उदार का.
दोनों के बीच ह्रदय
धड़के बित्ता भर का.

भूख भुला दे सबको
अपना ईमान धरम.
और बुद्धि अहंकार-
का लहराए परचम.

डर है, न कर डाले
मन कहीं पत्थर का.

द्वन्द्व भरे जीवन की
अनदेखी गहराई
पार करे कैसे
कोई गहरी ये खाई

एक भरोसा है बाकी
बस अपने अंदर का.

बतियाँ बिसर गईं.

बतियाँ बिसर गईं
बूढ़े-पुरानों की
कितनी कहानियाँ कितने जमानों की.

आगत, अनागत,
संभव, असंभव को,
काल धराशायी
करता गया सबको,

गूंजें-अनुगूंजें भी
शक्तिहीनों की रहीं न रहीं शक्तिवानों की.

विस्मृति के दंश खा
स्मृति को मांजना
दुहकर हो गया, योग
दोहरा ये साधना

पाकर भी क्या होगा 
सपने वीरानों के, सुधियाँ वीरानों की. 

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