Sunday, February 19, 2012

मेरे चार गीत



१.
बड़े-बड़े महानगर में



बड़े-बड़े महानगर में
छोटे-छोटे मन.
दुर्लभ हो गए आज
अपने आत्मीयजन.

जीवन-शैली ही कुछ
इतनी बदल गई
गाढ़े संबंधों की
चांदनी हीं ढल गई,

ताज़ी सुगंधों को
लील गया बासीपन.

सोचा तो था लेकिन
ऐसा न सोचा था,
घातों-प्रतिघातों में
धोखा ही धोखा था,

अपनी इच्छाओं का
अपने हाथों दमन.


२-
बहुत सोचते हैं हम


अपनी कमजोरियों को
शक्ति में बदलने की
राह खोजते हैं हम.
जी हां, ये सच है कि बहुत सोचते हैं हम.

लड़ते-लड़ते अपनी-
बेचारगी से अघाये हम,
जाने कितनी दूरी को
तय कर आए हम,

मौन हो चुका घातक,
खुले-आम इसलिए
आज बोलते हैं हम.
जी हां, ये सच है कि बहुत सोचते हैं हम.

संभव है खले आपको
ये बड़-बोलापन,
पर कब तक झेलते
रहें अपना भोलापन,

हाथ जोड़ना जब भी
काम नहीं आए तो,
हाथ तोड़ते है हम.
जी हां, ये सच है कि बहुत सोचते हैं हम.

३-

आज गाने का मन है तो


झूठी प्रशस्तियां ही न केवल दुहराओ,
बंधु, आज गाने का मन है
तो लोगों के दुःख गाओ.

दुःख उनके,
जिनके अधरों पर हैं ताले पड़े
दुःख उनके,
जिनके मुंह में न निबाले पड़े
उनकी दुखती रग भी धीरे से सहलाओ
बंधु, आज गाने का मन है
तो लोगों के दुःख गाओ.

आंखें भारी
फिर भी नींद न मिली जिनको
चाही तो,
लेकिन उम्मीद न मिली जिनको
उनके विषाद राग में डूबो, उतराओ
बंधु, आज गाने का मन है
तो लोगों के दुःख गाओ.

४.
अपनी ज़मीन पर


हमने कब कहा कि बड़े हैं हम.
जो भी हैं, जैसे हैं,
अपनी ज़मीन पर खड़े हैं हम.

धूल में अंटी है
पहचान हमारी,
इसमें शर्म की क्या बात है.
हमसे ज्यादा भला
जानेगा कौन,
क्या हमारी औकात है.

पत्थर हैं, पर किसी
अंगूठी में रत्न की-
तरह नहीं जड़े हैं हम.


देह से उपस्थित हैं
हम लेकिन आपको
नज़र नहीं आते हैं
आश्चर्य! इस भद्र-
नगरी में हम विदेह
ही माने जाते हैं

पर ये इतिहास
साक्षी है कि
झूठ के विरुद्ध ही लड़े हैं हम.

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-रमेश तैलंग

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