Friday, November 18, 2011

एन.बी.टी.पटना राष्ट्रीय संगोष्ठी: १४ नव.२०११ -आलेख : ओम प्रकाश कश्यप

(14 नवंबर, 2011, बालदिवस के अवसर पर नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा पटना के गांधी मैदान में लगे पुस्तकमेला में ’बच्चों की पुस्तकों में बचपन’ विषय पर आयोजित गोष्ठी में पढ़ा गया आलेख)

बच्चों की पुस्तकों में बचपन
-ओम प्रकाश कश्यप

[इस विषय के चयन के लिए पहले तो मैं ‘नेशनल बुक ट्रस्ट’ का आभार व्यक्त करना चाहूंगा. ‘बच्चों की पुस्तक में बचपन’ विषय जितना साहित्यिक है, उतना ही समाज-मनोवैज्ञानिक भी. प्रकटतः यह बच्चों के अधिकार से जुड़ा मुद्दा है. लेकिन असल में यह देश के भविष्य, सभ्यता और संस्कृति से जुड़ा समसामयिक विषय है. इसलिए जरूरी है कि इस विषय पर राष्ट्रव्यापी बहस हो, जिसमें साहित्यकारों के अलावा समाजविज्ञानी, सुधी मनोवेत्ता, शिक्षाशास्त्री और अभिभावकगण भी अपनी राय रखें—ओमप्रकाश कश्यप]
साहित्यकार और बचपन के रिश्ते को आ॓स्ट्रियाई कवि, नाटककार पीटर हेंडके के इन शब्दों से समझा जा सकता है—

‘जब कोई राष्ट्र अपने किस्सागोओं को भुला देता है, तो वह अपने बचपन को भी भूल जाता है.’1
बच्चों की पुस्तकों में बचपन की खोज शब्दों में मासूमियत की खोज है. यह उस क्षण की खोज है जब से बालक की स्वतंत्र अस्मिता को पहचानने का चलन शुरू हुआ. उस अवसर की खोज है जब यह माना जाने लगा कि बालक स्वतंत्र नागरिक है तथा बच्चों की सक्रिय मौजूदगी के अभाव में कोई रचना उनपर थोपी हुई रचना कही जानी चाहिए. बालकों की स्वतंत्र शिक्षा की आवश्यकता को तो बहुत पहले से महसूस किया जाने लगा था. स्मृतियों, ब्राह्मण ग्रंथों में इस पर विस्तार से चर्चा है. उपनिषद का तो मतलब ही गुरु के आगे बैठकर ज्ञानार्जन करना है. प्राचीन ग्रंथों में एकलव्य, नचिकेता, उपमन्यु, ध्रुव, अभिमन्यु, आरुणि उद्दालक आदि उदात्त बालचरित्रों का वर्णन हैं. उनमें दर्शन है, गुरुभक्ति है, त्याग है, समर्पण है. सूरदास की रचनाओं में कृष्ण की बाललीलाओं का मनोहारी वर्णन भी है. लेकिन सब बड़ों द्वारा बड़ों के बड़े उद्देश्य साधने के निमित्त किया गया साहित्यिक आयोजन है. बचपन का मुक्त उल्लास वहां अनुपस्थित है.

पूरब की भांति पश्चिम में भी बच्चों की शिक्षा की मांग बहुत पहले उठने लगी थी. पहल करने वाले थे प्लेटो और उसका शिष्य अरस्तु. लेकिन बचपन के मनोविज्ञान को समझने की वास्तविक शुरुआत हुई सतरहवीं शताब्दी में. इसका श्रेय अनुभववादी दार्शनिक जान ला॓क(1632—1704) तथा स्वतंत्रतावादी विचारक रूसो को जाता है. अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘एन ऐस्से आ॓न ह्युमैन अंडरस्टेंडिंग’ में ला॓क ने प्लेटो की उस धारणा को चुनौती दी, जिसमें उसने कहा था कि पढ़ना असल में दिमाग में पहले से ही विद्यमान ज्ञान-संपदा को तरोताजा करने की प्रक्रिया है. ला॓क के पूर्ववर्ती विचारक रेने देकार्त का भी यही मानना था. अपने पूर्ववत्ती विचारकों का खंडन करते हुए ला॓क ने बच्चों के मस्तिष्क को ‘कोरा कागज’ बताया. जिसपर मनचाही इबारत लिखी जा सकती है.2

ला॓क की मृत्यु के लगभग मात्र आठ वर्ष बाद जन्मे रूसो ने बचपन को लघु अभ्यारण्य की अवधि माना. अपनी पुस्तक ‘एमाइल’ में वह प्रश्न करता है—‘आखिर वह कौन-सी अवस्था है जिसकी सामान्य गतिविधियां करुणा और परोपकार से भी बढ़कर हैं?’ उत्तर वह स्वयं देता है—‘बचपन!’ अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वह लिखता है—

‘बचपन को प्यार करो. उसके साथ खेल खेलो. उसके सुखामोद में शामिल होकर उसकी मनोरम प्रकृति में डूब जाओ….बचपन के आनंदमय दिनों को छीनो मत, ये बहुत जल्दी गुजर जाने वाले हैं.’3
इसी पुस्तक में संत पियरे की बात को आगे बढ़ाता हुआ वह लिखता है—‘संत पियरे ने व्यक्ति को बड़ा बालक कहा है. हम चाहें तो बालक को छोटा व्यक्ति भी कह सकते हैं.’



बचपन को साहित्यिक विमर्श के केंद्र में लाने की वे घटनाएं अनायास नहीं थीं. उनके पीछे लंबा सिलसिला है. जिससे औद्योगिक विकास और मशीनीकरण की अनेकानेक कहानियां जुड़ी हैं. उनमें बचपन की कराह है, आंसू हैं, शोषण और संत्रास है. आधुनिक बालसाहित्य को समझने के लिए इस पृष्ठभूमि पर सरसरी नजर डालना जरूरी है. यूरोप में पंद्रहवीं शताब्दी में सुधारवादी आंदोलन चला तो धार्मिक सुधारों की मांग कर रहे विचारकों ने बालक को नैतिकता का प्रतिरूप मानते हुए उसकी शिक्षा पर जोर दिया. लेकिन यह शिक्षा उतनी स्वतंत्र नहीं थी जितनी अपेक्षित थी. अधिकांश सुधारवादी जा॓न का॓ल्विन के अनुयायी थे. धार्मिक सुधारों के समर्थक का॓ल्विन का मानना था कि दुनिया में ऐसी कोई वस्तु नहीं जो मनुष्य के लिए अनुपयोगी अथवा उसके भोग के लिए निषिद्ध हो. अपने समय के हिसाब से आधुनिक होकर भी का॓ल्विनवादी कहीं न कहीं परंपरावादियों की ‘कर्म-आचार संहिता’ से प्रभावित थे. जिसका संदेश था—‘कठिन परिश्रम, बुराई के विरुद्ध युद्ध में हथियार की तरह डटे रहना.’4 मशीनीकरण की आड़ में तेजी से उभर रहे पूंजीपति वर्ग ने इस कथन को अपने लाभ के लिए प्रयुक्त किया. धर्माचार्यों तथा लालची उद्योगपतियों के प्रयास से तत्कालीन समाज में एक संस्कृति विकसित होने लगी जिसका विश्वास था कि बच्चों की आत्मा की शुद्धि तथा उन्हें पतन की राह पर बढ़ने से रोकने के लिए उनको काम में लगाए रखना आवश्यक है.5

यह एक खतरनाक अवधारणा थी. जिसके परिणामस्वरूप अबोध बच्चों को कोयला खदानों, कारखानों, खेतों और कपड़ा मिलों में जोत दिया गया. उनसे ऐसे काम लिए जाने लगे जिन्हें बड़े आदमी करने से बचते थे. आर्थर वालेस काल्हों(1885—1979) ने अपनी पुस्तक ‘ए सोशल हिस्ट्री आ॓फ अमेरिकन फेमिलीज’ में एक रोंगटे खड़े कर देने वाले तथ्य का खुलासा किया है. उसने लिखा है कि यूरोप से लेकर अमेरिका तक बालश्रम इतना आम था कि यूरोप से अपहृत बच्चों को कृषि-मजदूर तथा उद्योग मजदूर के रूप में अमेरिका ले जाकर बेच दिया जाता था.’6 ये हालात तब के हैं जब अमेरिका में दासप्रथा लागू थी. खतरनाक परिस्थितियों में बच्चों से अमानवीय परिस्थितियों में सोलह-सतरह घंटे प्रतिदिन बिना किसी विश्राम के काम लिया जाता था. बदले में उन्हें मामूली मजदूरी दी जाती थी. बीमार होने पर उनके इलाज का भी कोई इंतजाम न था. इस स्थिति ने उस समय के संवेदनशील विचारकों, समाज विज्ञानियों, लेखकों और साहित्यकारों को आहत किया था. जान ला॓क, रूसो, चार्ल्स डिकेंन्स, राबर्ट ओवेन, कार्ल माक्र्स आदि ने बच्चों को शोषण से उबारने के लिए अनथक लेखन किया. आंदोलन चलाए. महिला स्वातंत्रयवादियों के संघर्ष का लाभ भी बच्चों के पक्ष में खड़े लेखकों तथा विचारकों को मिला.



बच्चों के पक्ष लगातार उठ रही आवाजों का परिणाम यह हुआ उनके लिए स्वाथ्यकर परिस्थितियों तथा शिक्षा की मांग की जाने लगी. लेखकों तथा साहित्यकारों ने बच्चों को ध्यान में रखकर पुस्तकें लिखना आरंभ किया. सोलहवीं शताब्दी में जान अमोस कोमिनयस द्वारा बच्चों के लिए पहली चित्रत्मक पुस्तक ‘आरबियस पिक्चस्’ तैयार की गई, जो आज की भाषा में कहें तो लघु शब्दकोश थी. उस समय तक अंग्रेजी लोकगाथाओं के महानायक राबिनहुड के किस्से बच्चों और बड़ों में उसी प्रकार लोकप्रिय थे जैसे भारत में सुल्ताना डाकू की कहानियां कुछ दशक पहले तक घर-घर सुनी-कही जाती थीं. सतरहवीं शताब्दी में चार्ल्स पेरट ने परीकथाओं की एक पुस्तक तैयार की. जिसने बच्चों और बड़ों दोनों को आकर्षित किया.



1744 में जान ला॓क के विचारों से प्रभावित एक समर्पित प्रकाशक जान न्यूबेरी आगे आया. उसने पाॅकेट बुक्स साइज में एक चित्रत्मक पुस्तक तैयार की. जिसको आधुनिक रचनात्मक बालसाहित्य की पहली पुस्तक माना जाता है. पुस्तक में अंग्रेजी वर्णमाला को आधार बनाकर छोटी-छोटी कविताएं थीं. अपनी पुस्तक को लोकप्रिय बनाने के लिए न्यूबेरी ने कुशल विपणन तकनीक अपनाई. ग्राहक यदि लड़का हो तो प्रत्येक पुस्तक के साथ एक गेंद और लड़की हो तो उसे एक पिनकुशन भेंट में दिया था. न्यूबेरी की पुस्तक को इंग्लेंड में व्यापक लोकप्रियता मिली. उससे बच्चों के मौलिक पुस्तकों की रचना का सिलसिला आरंभ हो गया. लेकिन बच्चों को केंद्र में बनाकर कालजयी मौलिक कृतियांे की रचना उनीसवीं शताब्दी में ही संभव हो सकी. बालसाहित्य के क्षेत्र में युग-परिवर्तनकारी योगदान रहा हेनरी एंडरसन(1805—1875) की. सही मायने में पुस्तकों के बचपन के करीब आने की वह पहली घटना थी. चार्ल्स डिकेंस से प्रभावित एंडरसन ने शताब्दियों से सुनी-सुनाई जा रही परीकथाओं को नए युग की भावना के अनुकूल लिखना आरंभ किया. उनकी कहानियां किस्सागोई तथा रोमांच से भरपूर थीं. बहुत जल्दी एंडरसन के कथाचरित्र घर-घर लोकप्रिय होने लगे. उसके तुरंत बाद लुईस कैरोल(1832—1898) ने ‘एलिस एडवेंचरर्स इन वंडरलेंड’(1865), लुईस स्टीवेंसन(1850—1894) की ‘ट्रेजर्स आइसलेंड’(1883), रुडयार्ड किपलिंग(1865—1936) की ‘दि जंगल बुक(1894) जैसी कालजयी कृतियां सामने आईं. जिसमें बचपन की मासूमियत थी, खिलंदड़ापना था. चुनौतियों से टकराने का जज्बा था और इन सबसे बढ़कर था, दुनिया के सभी जीवों, छोटे बड़ों के लिए प्यार तथा नैतिकतावादी दृष्टिकोण. यहां जिन साहित्यकारों के नाम का उल्लेख हमने किया गया उनकी ख्याति कथा साहित्य के क्षेत्र में है. कविता के क्षेत्र में भी इस दौर में एक से बढ़कर एक कविताएं लिखी गईं. उनीसवीं शताब्दी में जन्मी कवियत्री(1896—1966) डोर्थी एल्डिस की छोटी-सी कविता7 में एक बालक की स्वाभाविक आकांक्षा को इस प्रकार दर्शाया गया है, भावार्थ देखिए—

हर कोई कहता है—मैं अपनी मां की तरह दिखता हूं.
हर कोई कहता है—मेरे चेहरे पर बिया आंटी की झलक है.
हर कोई कहता है—मेरी नाक पिताजी की नाक जैसी है.
लेकिन मैं तो सिर्फ और सिर्फ अपने जैसा दिखना चाहता हूं

जिस विषय पर आज की चर्चा केंद्रित है, उसको वास्तविक सम्मान मिला बीसवीं शताब्दी में. फिलिप एरिस ने ‘सेन्च्युरिजी आ॓फ चाइल्डहुड’ लिखकर बालकों की शताब्दियों से हो रही उपेक्षा की ओर ध्यान आकर्षित किया. उन दिनों मारिया मांटेसरी द्वारा खोले गए स्कूलों की धूम मची हुई थी. पेशे से मनोवैज्ञानिक मारिया बच्चों के कुदरती हुनर को निखारकर उनकी प्रतिभा को तराशने में विश्वास रखती थी. मारिया को पहली सफलता उस समय मिली जब उसके मानसिक रूप से विकलांग कई विद्यार्थियों ने राज्य स्तरीय परीक्षा न केवल पास की, बल्कि औसत विद्यार्थियों से अधिक नंबर लाकर उस समय के शिक्षाविज्ञानियों को चकित कर दिया था. कुछ वर्ष पहले आई आमिर खान की चर्चित फिल्म ‘तारे जमीन पर’ के दर्शील सफारी का चरित्र का कांसेप्ट मारिया के छात्रों से लिया गया है. बहरहाल मारिया मांटेसरी की नई शिक्षा प्रणाली तथा ऐरिस की पुस्तक से अंग्रेजी समाज में एक बहस का आरंभ हुआ. जिसको दूसरे विश्वयुद्ध के बाद की परिस्थितियों से बल मिला. इस सब का सुखद परिणाम यह हुआ कि 1954 में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका ने हर साल 20 नवंबर को अंतरराष्ट्रीय बालदिवस मनाए जाने की घोषणा की. बालश्रम पर रोक लगाने, बच्चों की अनिवार्य शिक्षा के लिए अंतरराष्ट्रीय चार्टर में माकूल इंतजाम किए गए.

हिंदी की बात करें तो लगभग डेढ़ सौ वर्ष के हिंदी बालसाहित्य के इतिहास में बचपन का प्रवेश बहुत बाद की घटना है. आरंभिक साहित्यकारों में अधिकांश का मानना था कि बच्चों के लिए पाठ्येत्तर पुस्तकों की आवश्यकता सिर्फ उन्हें संस्कारित करने के लिए है. उनके मनोरंजन तो खेलकूद से हो ही जाता है. जो कमी रह जाती है उसको लोकसाहित्य पूरी कर देता है. बच्चों के संस्कारीकरण के लिए जो पुस्तकें तैयार की जाती थीं, उनका उद्देश्य एक ही होता था, येन-केन-प्रकारेण बड़ों की कार्बन कापी तैयार करने में मदद करना. अक्सर किसी महापुरुष का नाम या उसकी कहानी सुनाकर बच्चे को बताया जाता कि देखो, ‘देखो, तुम्हें इनके जैसा बनना है.’ कोई उनसे नहीं कहता था कि उन्हें अपने जैसा बनना है. जो वे चाहते हैं, वैसा बनना है.

हिंदी बालसाहित्य बचपन की दस्तक का श्रेय प्रेमचंद को दिया जाना चाहिए. उनकी कहानी ‘ईदगाह’ पहली माइलस्टोन कहानी है, जिसमें बालक अपनी पूरी पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारी के साथ उपस्थित है. उसका दायित्वबोध इतना सघन है कि उसके लिए वह कुछ देर के लिए अपने बचपन को भी बिसरा देता है. ‘ईदगाह’ के अलावा प्रेमचंद ने ‘गुल्ली-डंडा’, ‘नशा’, बड़े भाई साहब’ जैसी उत्कृष्ट कहानियां भी लिखीं. जिनके पात्र बचपन को छोड़कर किशोरावस्था की दहलीज पर बढ़ चुके हैं. उनके बाद की पीढ़ी के रचनाकारों में सुभद्रा कुमारी चैहान, स्वर्ण सहोदर, विद्याभूषण विभु, जहूरबख्श, मस्तराम कपूर, रामधारी सिंह दिनकर, रामनरेश त्रिपाठी, निरंकार देव सेवक आदि ने बचपन को केंद्र बनाकर खूबसूरत और मनोरम साहित्य की रचना की. सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता ‘मेरा बचपन’ कविता बचपन को याद करती संभवतः सबसे ताजगी भरी कविता है. वहां एक मां बेटी की बालसुलभ क्रीड़ाओं को देखते हुए स्वयं अपने बचपन में चली जाती है—

मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी
नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी
‘मां ओ’ कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आयी थी
कुछ मुंह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लायी थी
मैंने पूछा, ‘यह क्या लायी?’ बोल उठी वह ‘मां, काओ’
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा— ‘तुम्हीं खाओ’

बचपन को लेकर यह हिंदी कविता अपने आप में अनूठी, बेमिसाल है. यहां बच्ची अबोध है, इसलिए वह मां की स्वाभाविक मौजूदगी में है. लेकिन बच्चे तो बच्चे हैं, अवसर मिले तो नटखटपन से कैसे बाज आएं. बीसवीं शती आते-आते बच्चों में यह हौसला आ चुका था कि वे शान से कह सकें कि ‘हां’ हम नटखट हैं. स्वर्णसहोदर बचपन के इस उल्लास को कुछ इस प्रकार व्यक्त करते हैं—

‘नटखट हम हां, नटखट हम
करने निकले खटपट हम
आए गए लड़के आ गए हम
बंदर देख लुभा गए हम
बंदर को बिचकाएं हम
बंदर दौड़ा भागे हम
नटखट हम हां नटखट हम
बच गए लड़के बच गए हम. (स्वर्णसहोदर, नटखट के गीत, पृष्ठ-1)
कविताओं के साथ-साथ कहानियों और उपन्यासों में भी बचपन का खुला बयान हिंदी साहित्यकारों ने किया है. हरिकृष्ण देवसरे, प्रकाश मनु, जहूर बख्श, जाकिर अली रजनीश, ऐसे अनेक हिंदी बालकथाकार हैं, जिनकी कहानियों में बचपन की हर भंगिमा की झलक देखी जा सकती है. कवियों में श्रीप्रसाद, डा॓. राष्ट्रबंधु, रमेश तैलंग ने बचपन को उतारने का अदभुत काम किया है. अपने ही शहर के कन्हैयालाल मत्त मुझे इस अवसर पर याद आते हैं. नन्हे बच्चों के लिए अद्भुत लोरियां उन्होंने लिखी हैं. गिजु भाई पटेल ने बचपन को संवारने के लिए वह कार्य किया, जो पश्चिम में मारिया मांटेसरी ने किया था.



जहां तक साहित्यिक कृतियों का सवाल है, वहां बचपन को पूरा सम्मान मिला है. लेकिन फिर भी कई क्षेत्र हैं जहां काम किया जाना बाकी है. जैसे गांव के बच्चों को लेकर काम करने की बहुत गुंजाइश है. शहरी जीवन में भी हाशिये के कुछ पात्र हैं जिनका बचपन उपेक्षित है. छोटे-छोटे ढाबों, कारखानों, रेलवे स्टेशनों पर काम करने वाले, कबाड़ बीनकर गुजारा करने वाले बच्चों को लेकर गंभीर काम किए जाने की आवश्यकता है. बालतस्करी, अशिक्षा, कुपोक्षण जैसी समस्याएं भी हैं, जिनके विरोध में वैचारिक आंदोलन कड़ा होना चाहिए, तभी हम राष्ट्र के बचपन को सम्मान दे सकते हैं. अंत में मैं ब्रिटिश नाटककार टाम स्टापर्ड की उक्ति को दोहराना चाहूंगा. उसने कहा था कि यदि आप अपने बचपन को साथ लेकर आगे बढ़ते हैं तो कभी बूढ़े नहीं हो सकते.8 इसे हम ऐसे भी कह सकते हैं कि जो राष्ट्र अपने बचपन का ख्याल रखता है, उसका वैभव कभी फीका नहीं पड़ता.

3 comments:

  1. unable to read i find only dot-dot on screen

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  2. aap kaashyap ji ke lekh ko is link par bhi padh sakte hain: http://balkahani.wordpress.com/2011/11/15/%E0%A4%AC%E0%A4%9A%E0%A5%8D%E0%A4%9A%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%AC%E0%A4%9A/

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  3. ramesh ji aur kashyap ji dhanyavad
    bahut gyanvardhak aur saarthak lekh hai
    bachchon ka manovigyan samajhna bhi meri drushti men ek kala hai ye har kisi ke bas ki baat nahin
    bahut sundar !!!

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