मसि, कागद छूए बिना धन-धन हुए कबीर
हम पोथी लिख-लिख मरे, फिर भी रहे फ़कीर
सागर को सब सौंप कर नदिया हुई विदेह
दिया बुझे नर क्यूं करे वृथा धूम सों नेह.
रैन, दिवस खटती रहे, पल भर ना विसराम
सावन लागे जेठ में, जननी तुझे प्रनाम.
अपने दुःख पर्वत लगें, औरन के तृणमूल
जरे, मरे, मति बावरी, गाड़े उर में शूल
मिलें विरल सन्जोग से, सुजन सखा जग माहि
नाव पडी मझधार में, डूबन देवें नाहि
सब गुन हैं प्रभु, आपके, हममें कहा शऊर
नैना होते आंधरे, दियो न होतो नूर
जब तक बसे न देह में, श्रमजल की मधुवास
धरे ना तब तक एक पग, जीवन में मधुमास
मारग पुरखन ने गढ़ो, हम तो बस रह्गीर
सुजस धरो सिर और को, हम काहे के मीर
जहां दीनजन की खबर, लेवत आवे लाज
ऐसे निठुर समाज मे, मीलों दूर सुराज
धूर नीर से जा मिली करदी कीचमकीच
धंसे पंक में पग हुई बुद्धि बावरी नीच
namaskar
ReplyDeleteaap ke blog par aanaa sukhad laga , sadhuwaad
saadar