Monday, November 20, 2017

मुंबई पर पहली कविता


दो वर्ष हो गए मुंबई में
अपरिचितों की तरह रहते हुए
सेन्ट्रल पार्क की चहलकदमी भी
कुछ ख़ास काम नहींआई

तभी एक दिन मुझे लगा-
शहर कोई भी हो
वह तब तक आपको नहीं अपनाता
जबतक आप स्वयं उसे नहीं अपनाते.

एक बार खुले मन से
कोशिश करके  तो देखें
फिर ऐसा हो ही नहीं सकता
कि कुछ मुस्कराहटें
आपकी झोली में न आ गिरें


मुंबई इतनी भी बेमुरब्बत नहीं
कि आप अपना हाथ मिलाने को आगे बढाएं
और वह तपाक  से
अपना हाथ पीछे खींच ले

- रमेश तैलंग






1 comment:

  1. मुंबई के बेगाने पन को झुठलाती आपकी कविता अच्छी लगी

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