जुलाई 27, 2012 · 10:39 अपराह्न
इस आंदोलन को सफल होना ही चाहिए
अन्ना हजारे गांधी नहीं हैं. पर वे अच्छे उद्देश्य के लिए अड़ जाने वाले नेता हैं. ऐसे व्यक्ति उन चुनौतियों को आसानी से पार करने में सफल हो जाते हैं, जहां लक्ष्य का एका हो तथा समूह की बागडोर पूरी तरह अपने हाथों में हो. जहां बहुत से शक्ति-केंद्र हों, उलझाव-भरी, जटिल सत्ता-संरचना हो, जहां मौजूद लोगों में अधिकांश का उद्देश्य महज स्वार्थ-सिद्धि हो, ऐसे लोगों को सही रास्ते पर लाने के लिए जैसा बुद्धि-चातुर्य तथा रणनीतिक कौशल चाहिए, उसका उनमें अभाव है. इसलिए यह संघर्ष अन्ना हजारे और सरकार के बीच न होकर टीम अन्ना और सरकार के बीच है. टीम अन्ना के दूसरे सदस्य अरविंद केजरीवाल राजनीति के क्षेत्र में व्याप्त अराजकता, अनैतिकता, अनाचार तथा भ्रष्टाचार से आहत, भावुक और संवेदनशील इंसान दिखते हैं. कई बार वे अपने जज्बात पर काबू नहीं रख पाते. किरन बेदी ने अपनी छवि सख्त पुलिस अधिकारी की बनाई थी. बाद में प्रशासन से पटरी न बैठ पाने के कारण वे नौकरी से इस्तीफा देकर समाज सेवा के क्षेत्र में गईं. उन्हें वहां प्रतिष्ठा भी मिली. परंतु कुछ अति उत्साह, कुछ उनकी गलती से सरकार उनकी छवि को दागदार करने में कामयाब रही है. इकानॉमी क्लॉस में यात्रा करके, बिजनिस क्लॉस का किराया लेना उनकी नैतिकता पर सवाल बनकर आया. इससे भी भारी पड़ा था रामलीला मैदान में किरन बेदी छाप प्रहसन, जिसने उनकी गंभीरता को सवालों के घेरे में ला दिया. शांति भूषण और प्रशांत भूषण पिता-पुत्र का योगदान आंदोलन से जुड़े कानूनी मुद्दे देखना है. अभी तक उन्होंने अपनी भूमिका का सफल निर्वाह किया है. पिछले वर्ष अगस्त आंदोलन में अन्ना हजारे द्वारा रिहाई की पेशकश को ठुकराकर थाने में धरना देने की घोषणा उनकी रणनीतिक जीत थी. मनीष सिशौधिया प्रायः लो-प्रोफाइल दिखते हैं. जनलोकपाल से इतर राजनीतिक, सामाजिक और प्रशासनिक सुधार के लिए उनके पास भी कोई ठोस रणनीति नहीं है. बाकी सदस्य बाड़ के समान हैं. संख्या बढ़ाने वाले. भ्रष्टाचार जो टीम अन्ना का केंद्रीय मुद्दा है, को लेकर भी जनलोकपाल बिल पर मौन सहमति से आगे नहीं जाते. यही कारण है कि सरकार को घेरने के लिए टीम अन्ना पुराने मुद्दों से आगे नहीं बढ़ पाई है. वह अभी तक जनलोकपाल पर अटकी हुई है, जिसे लेकर सरकार और बुद्धिजीवियों में अनेक मतभेद हैं. उसी का लाभ उठाकर सरकार मुद्दे को लगातार टालती आ रही है.
एक कानून के रूप ‘जनलोकपाल’ एक प्रतिबंधात्मक व्यवस्था है. वह अपराधियों को दंड दिलवाने पर केंद्रित है. अपराध की स्थितियां पैदा ही न हों, उसकी यह कोई व्यवस्था नहीं करता. दूसरे यह केवल आर्थिक अपराधों पर विचार तथा उनके निषेध तक सीमित रहता है. सामाजिक कदाचार, निजी क्षेत्र के भ्रष्टाचार पर वह चुप्पी साधे हुए है. जो कदाचित आर्थिक भ्रष्टाचार से भी खतरनाक है. उनके सहयोगी बाबा रामदेव का मुख्य मुद्दा विदेशों में जमा धन वापस लाना है. आगे क्या होगा, इस बारे में वे भी कोई विचार नहीं रखते. विदेशी बैंकों में जमा धनराशि को वापस लाना अव्वल तो आसान नहीं है. यदि यह चमत्कार संभव भी हो जाए तब क्या होगा? क्या गारंटी है कि उस धन को लेकर उनके नए-पुराने दावेदार परोक्षरूप में कोर्ट में दावेदारी पेश नहीं करेंगे! तब क्या यह संभव नहीं कि पद्मनाभ मंदिर के खजाने की तरह वह भी दिखावटी बनकर रह जाए! विनोबा ने भूदान में चालीस लाख एकड़ से अधिक भूमि जुटाई थी. ठोस एवं सक्षम कार्यनीति के अभाव में वह, पचास-साठ वर्षों के बाद आज तक, भूमिहीनों में नहीं बांट पाई है. परिणामस्वरूप अधिकांश भूमि पर दबंगों ने कब्जा कर लिया है.
इधर सरकार तथा जनलोकपाल आंदोलन का विरोध कर रहे दलों को लगता है कि वे टीम अन्ना के सदस्यों से लोगों का विश्वास डिगाने में कामयाब हो चुके हैं. इसलिए वे पूरी तरह जनलोकपाल के विरोध में उतर आए हैं. कानून मंत्री का हालिया कथन कि आंदोलनकारी सरकारी रवैये से असहमत हैं तो वे संयुक्त राष्ट्र में जा सकते हैं, बहुत ही बचकानी और गैरजिम्मेदराना टिप्पणी है. यह लोकपाल या जनसरोकारों से युक्त अन्य मसलों पर बिल के प्रति सरकार की उपेक्षा और उसकी दीठता को दर्शाता है. इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि गत वर्ष अगस्त आंदोलन के बाद अन्ना हजारे की रैलियों में लोगों की उपस्थिति घटी है. इस बार टीम अन्ना का फेसबुक अभियान भी पहले जैसा नहीं है. संभव है उसको सेंसर किया जा रहा हो. लेकिन यदि टीम अन्ना का कथित ‘सोशल’ साइट्स से भरोसा टूटा है तो यह अच्छा ही है. जिसे सोशल मीडिया कहा जाता है, वह प्रायः समाज से कटे या ऐसा महसूस कर रहे व्यक्तियों के लिए आभासी संबंधों का मंच है. उससे सूचनाओं का त्वरित आदान-प्रदान तो संभव है. लेकिन समुचित विवेक-निर्माण और समाज की संगठित ऊर्जा का सकारात्मक उपयोग संभव नहीं है. आभासी समूहों का प्रत्येक सदस्य स्वयं को समूह का नायक अथवा नायक-जैसा माने रहता है. वह काल्पनिक और गढ़ी हुई आभासी दुनिया होती है, जिसमें सहमति या असहमति कंप्यूटर की मात्र एक ‘क्लिक’ जितना महत्त्व रखती है. अव्वल तो वह व्यावहारिक चुनौतियों से दूर रहता है, लेकिन उसकी स्थिति बने भी तो उनका नायकत्व एक झटके में बिखर जाता है. सोशल मीडिया द्वारा समाज का ऐसा विवेक निर्माण संभव नहीं है, जिससे वह अपने अंतद्र्वंद्वों से उभरकर एकजुट हो, विकास के रास्ते पर आगे बढ़ सके. 2011 के आरंभ में अरब देशों में हुई क्रांति इसका उदाहरण है. साल-डेढ़ साल के भीतर वहां नई पोशाक में पुराना निजाम वापस आ चुका है.
ऐसी परिस्थितियों में क्या टीम अन्ना से मोह भंग हो जाना चाहिए? उनके चालू आंदोलन को चंद सिरफिरों की उछलकूद मानकर क्या हमें स्वयं को उससे पूरी तरह अलग कर लेना चाहिए? यदि यह हुआ तो वह बहुत ही बुरा होगा. टीम अन्ना के हम प्रशंसक हों या आलोचक, परंतु हमें यह हरगिज नहीं मानना चाहिए कि जनता में बदलाव की इच्छा मर चुकी है. न सरकार को यह लगने देना चाहिए कि जनता का मनोबल टूट चुका है. बल्कि अधिक विचारवान ढंग से, अधिक जागरूकता, समर्पण एवं चेतना-शक्ति से लोगों को मतभेद भुलाकर इस आंदोलन में साथ देना चाहिए. जिन लोगों की टीम अन्ना से सैद्धांतिक असहमति है, उन्हें सकारात्मक विरोध की नई संभावनाओं के बारे में सोचना चाहिए. मेधा पाटकर, अरुंधति राय, सुंदरलाल बहुगुणा जैसे आंदोलनकारी इससे पहले भी जनसहभागिता के बल पर निरंतर आंदोलन करते रहे हैं, लेकिन लोकतंत्र के वर्तमान स्वरूप पर सवाल खड़ा करने वाला यह शायद अकेला आंदोलन है. इसकी सफलता देश में लोकतंत्र की बुनियादी मजबूती के लिए अपरिहार्य है.
पर्याप्त लोक-चेतना के अभाव में राजनेता मनमानी पर उतर आए हैं. उत्तरप्रदेश में मुलायम सिंह यादव ने अपने पुत्र अखिलेश यादव को प्रदेश के मुख्यमंत्री की गद्दी देकर वंशवाद की राजनीति में एक नया आयाम जोड़ा है. वही काम अब कांग्रेस करने जा रही है. राहुल गांधी को सरकार में अतिरिक्त जिम्मेदारी देने की घोषणा इसी का संकेत है. उत्तर प्रदेश के दो चुनावों में असफलता का मुंह देर चुके राहुल की कामयाबी पर पूरा भरोसा तो खुद कांग्रेसियों को भी नहीं है. मंच पर बांह चढ़ाकर दो हाथ करने की मुद्रा में भाषण देने से संभव है एक-दो प्रतिशत वोट और अधिक मिल जाएं. लेकन पार्टी और देश को सफलतापूर्वक चलाने के लिए दूरदर्शी सोच और विवेक की जरूरत पड़ती है. उसका कोई प्रमाण राहुल ने अभी तक नहीं दिया है. लोकतंत्र के नाम पर वंशवाद की अमरबेलि, राजनीति के नाम पर अनाचार, विकास योजनाओं के पीछे छिपे भ्रष्टाचार पर यदि अंकुश लगाना है तो उसका केवल एक ही उपाय है, सरकार को लगे कि जनता उसके प्रत्येक धत्कर्म पर नजर रखे है. इसके लिए आवश्यक है कि सरकार जनलोकपाल जैसे परिवर्तनकामी आंदोलनों को कामयाबी मिले. उससे जनता के आत्मविश्वास में वृद्धि हो. सरकार को लगे कि सर्वकल्याणकारी राजनीति की मांग को अब और टालना असंभव है. फिलहाल ‘जनलोकपाल’ आंदोलन संभवतः अकेला ऐसा उदाहरण है जिसने इस देश के लोकतांत्रिक विकारों को लेकर बहस की शुरुआत की है. ऐसे आंदोलनों का बचे रहना, देश में लोकतंत्र अच्छी सेहत के लिए बहुत जरूरी है, फिर बहाना चाहे जनलोकपाल बिल हो या कुछ और.
ओमप्रकाश कश्यप
आखरमाला से साभार