Monday, February 20, 2012

मेरी चार ग़ज़लें





1

साठ -सत्तर फ़ीसदी दर पर खरीदी जाएंगीं.
और फिर ताबूतों में सब बंद कर दी जाएंगीं.

वाह री किस्मत! किताबें हिंदी में साहित्य की,
अब दहाई में बड़ी मुश्किल से बेची जाएंगीं.

जिंदगी अपनी खपा कर चल दिए लिख-लिख के जो
ख्वाहिशें उनकी, सुना है, बस अधूरी जाएंगीं.

चार,छह तमगे, समोसे, चाय और कुछ तालियां
लेखकों के साथ अब ये चंद चीजें जाएंगीं.

सोचता हूं, क्या करेगा आदमी, बाजार में-
जब सभी संवेदनाएं जब्त कर ली जाएंगी.


2.

वह कहता था- ‘वह शब्दों की खेती करता है.
और ज़िन्दगी जीते-जीते, पल-पल मरता है.’

खुद्दारी पहचान बनी जब से उसकी, तब से
हर आईना उससे नज़र मिलाते डरता है.

अस्पताल में शैया पर एक दिन वह पड़ा हुआ
लगा पूछने- ‘खोटा सिक्का कबतक चलता है?’

उसको अक्सर ही, दौरे आते थे अजब-अजब,
जिन्हें ज़माना बहुत बड़ा पागलपन कहता है.

बुरे वक्त में, एक कलम ही पूंजी थी उसकी,
पास अदीबों के इससे ज्यादा क्या रहता है?




3.

सच कहा, साहित्य से रोटी नहीं चलती.
क्या करें मन पर जबरदस्ती नहीं चलती

जिंदगी में दुख लिखे हैं, तो चलो ये ही सही
ंिजंदगी में हर समय मस्ती नहीं चलती.

वो नदी हो या समुंदर, पर सुना हमने यही
हौसले टूटे हों तो कश्ती नहीं चलती.

शौक से पाला है जिसने भी जुनूं फ़नकारी का
उसके पेशे में कभी जल्दी नहीं चलती.

जिसको जो देना था उसने वो खुशी से दे दिया
उसके आगे आपकी मर्जी नही चलती.



4.

वो जहां होगा, मचाएगा वहां पर शोर ही.
रोशनी को खींच कर लाएगा कोई और ही

देख लो इतिहास का पन्ना कोई भी खोल कर
इंकलाबी पहला होगा बस कोई कमजोर ही.

रहनुमाई में रखा है जबसे हमको आपने
जानलेवा लग रहा है अपने मुंह का कौर ही.

वो तरक्की क्या संवारेगी हमारी जिंदगी,
जो हमें लगती रही ताउम्र आदमखोर ही.

-रमेश तैलंग
(व्यंग्य यात्रा से साभार)

1 comment:

  1. वह कहता था- ‘वह शब्दों की खेती करता है.
    और ज़िन्दगी जीते-जीते, पल-पल मरता है.’

    खुद्दारी पहचान बनी जब से उसकी, तब से
    हर आईना उससे नज़र मिलाते डरता है.
    गहन भाव लिये ... बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ...

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