Saturday, July 9, 2011

बच्चों की दुनिया के अंग संग :अवध बिहारी पाठक

(मेरे प्रिय बाल गीत -पुस्तक पर यह समीक्षा मेरे प्रिय मित्र अनुराग शर्मा द्वारा संचालित वेबसाइट : डब्ल्यू डब्ल्यू डब्ल्यू.लेखकमंच .कॉम पर कुछ दिनों पूर्व प्रकाशित हुई थी. उसे इस ब्लॉग पर अपने पाठक मित्रों के अवलोकनार्थ लेखकमंचसे साभार प्रस्तुत कर रहा हूँ.)

कवि रमेश तैलंग के बालगीतों में प्रयोगधर्मी विविधता है। उनके बालगीतों के संग्रह ‘मेरे प्रिय बालगीत’ पर वरिष्‍ठ कवि अवधबिहारी पाठक की आलोचनात्‍मक टिप्‍पणी-

‘हर रात/लौटता हूं/रेंगता रेंगता/उसी गली में/जहां मुस्कुराता है एक
बच्चा/हर शाम/मुझे पंख देने के लिए- राजकुमार केसवानी (‘बाकी बचें जो’ से)

बीसवीं सदी के अर्धशतक तक साहित्य सृजन, पठन पाठन आदमी की जिंदगी का एक अहम हिस्सा बना रहा, परंतु उसके बाद का समय साहित्य के पठन-पाठनकी बड़ी दर्दनाक तस्वीर खींचता है। लेखन में उदात्तता आई, परंतु पढऩे वालों का अकाल पड़ गया, क्योंकि साहित्य में इन दिनों बाजारवाद की बड़ी जोरदार धमक है। अर्थ जहां जिंदगी का लक्ष्‍य बन जाए, वहां बाल साहित्‍य और बाल संवेदना कैसे जिंदा रहे। परिणामत: उसकी भी उपेक्षा हुई, किंतु ऐसी जटिल परिस्थिति में भी बाल साहित्‍य लिखा जा रहा है तो यह प्रयत्न उत्साहवर्धक है और नई संभावनाओं से लैस भी, क्योंकि बकौल राजकुमार केसवानी बच्चे समाज की जिंदगी को उड़ान भरने की ताकत देते हैं। मेरे देखने में रमेश तैलंग की पुस्‍तक ‘मेरे प्रिय बाल गीत’ अभी-अभी आई है, जो बाल सहित्‍य लेखन में एक अद्भुत प्रयत्न है। यूं रमेश तैलंग बाल साहित्य लेखन के अप्रतिम स्तंभ है। उनका योगदान इस क्षेत्र में बहुत चर्चित रहा है, सम्मानित पुरस्‍कृत भी।
जाहिर है, बच्चों की दुनिया उनकी अपनी दुनिया होती है- सभी प्रकार के काइयांपन से कोसों दूर, वहां सब कुछ नैसर्गिक है, कवि का मन और विचार चेतना बच्चों की दुनिया में बहुत गहरे डूब कर एकाकार हो गई। फलत: बच्‍चों की दुनिया का हर पहलू सोच-विचार, आचार, मान-अपमान, स्वाभिमान, प्यार, दुलार, धिक्कार और हकों की मांग भी शामिल है बच्चों की इस गीत दुनिया में। मनुष्य की ‘चतुराई का शिल्प’ नहीं उसके स्थान पर शुद्ध नैसर्गिक मन की हलचल मूर्त हुई है जो तैलंग जी के संवेदना पक्ष को उजागर करती है।
यहां रचना के कन्टेंट की बात कहना भी जरूरी-सा लगता है। पुस्‍तक में 163 बालगीत हैं जो छोटे, मझोले, बड़े सभी आकार हैं। ये गीत वस्‍तुत: बालक के मन पर आई उस मनोवैज्ञानिक स्थिति की व्याख्या है, जो बालक अपने समग्र परिवेश के प्रति व्यक्त करता है। कवि इतना समर्थ है बाल मनोविज्ञान को पढऩे में कि बालक की बात काल्पनिक हो या यथार्थ लेखक ने हर उस विचार-लहर को पकड़ा है, जहां उसके क्रियाकलाप उसके अंतर्मन के गंभीर विचार प्रस्ताव बन जाते हैं, वे रोचक हैं, त्रासक भी और चैलेंजिंग भी। हर बाल गीत की अपनी एक जमीन है और उसमें बच्चे के उस मोहक क्षण का वर्णन है, जहां बच्चा निपट अकेला खड़ा होकर अपने परिवेश को रूपायित करता है। फलत: उनमें बाल जीवन का आल्हाद भी है और विडम्‍बनाएं भी। सभी कविताओं में निहित कवि भी व्यंजना को प्रस्तुत करने में विस्तार मय है अस्तु बिल्कुल जीवंत रूपकों का दर्जा यहां इष्ट है। यथा।
बाल श्रमिक हमारे देश की दुखती रग है। हजार कानून बने, परंतु बाल श्रमिकों का शोषण अब भी जारी है। उन्हें अपने शिक्षा के अधिकार की जानकारी भी शासन नहीं दे सका। बाल श्रमिकों के माता-पिता पेट की आग की गिरफ्त में पड़कर बच्चों को स्कूल नहीं भेज पाते। ‘भोलू’ नामक कविता में बाल श्रमिक भोलू का साथी उसे स्कूल जाने को प्रेरित करता है तो भोलू उत्तर देता है कि ठीक है मैं पढऩे जाऊंगा, परंतु ‘अच्छा पढऩे की तनख्वाह क्या दोगे ?’ (पृष्‍ठ-34) कवि यहां उन बच्चों का हाहाकार उकेर सका, जो पेट की खातिर अपने हर क्रियाकलाप को केवल पैसे से तोलते हैं। ‘ मैं ढाबे का छोटू हूँ’ कविता होटलों में देर रात तक काम करने वाले बच्चों की पीड़ा को साकार कर सकी है- ‘देर रात में सोता हूँ/कप और प्याली धोता हूँ/रोते-रोते हँसता हूँ/हँसते- हँसते रोता हूँ।’ यहाँ बाल श्रमिक की लाचारी साकार हो उठी है जिसकी चिंता न समाज को है और न शासन को। कवि यहां एक भयंकर सच को व्यक्त कर गया कि शायद कविता के बहाने ही सही, किसी का ध्यान इस तरफ जाए और कुछ कारगर उपाय हों।
हमारे देश में प्रांतों की विविधता से विविधवर्णी संस्कृति का मेल हमें घरों में भी दिखाई देता है। ‘घर है छोटा देश हमारा’ कविता में घर में विभिन्न प्रांतों की उन मां, चाची, भरजाई का जिक्र है जो अलग होकर भी खानपान, आचार-विचार के स्‍तर पर सामन्‍जस्‍य बैठाकर घर चलाती हैं- ‘छोटे से घर में हिलमिलकर सारे करें गुजारा।’ (पृष्‍ठ 46)। जैसा कथन देश प्रेम और एकता की प्रेरणा देता है।
‘पापा की तनख्वाह’ और ‘महंगे खिलौने’ कविताएं बच्चों के मुंह से कही गई बाजार में व्याप्त महंगाई की कहानी हैं, जहां खिलौनों के अभाव में उनका बचपन छीज रहा है। बच्चा अबोध है, परंतु भीतर से कितना जागरूक कि उसके पापा ‘चिंटू का बस्ता/मिंटी की गुडिय़ा/अम्‍मा की साड़ी/दादी को पुडिय़ा’ (पृ0 64)। बाजार से उधार लाए हैं। इसका घाटा अगले महीने खर्च कम करके झेलना पड़ेगा। यहां कवि मझोले पगारधारी लोगों के बच्चों की तकलीफ को ठीक से प्रस्तुत कर गया है। आगे का दृश्य और भी मोहक है। बच्चा भले ही छोटा है, परंतु बाजार की उठक-पटक से अनजाना नहीं है। एक अन्‍य कविता ‘महंगे खिलौने’ में बच्‍चा कहता है- ’छोटे हैं, फिर भी हम इतना समझते/ कैसे गृहस्थी के खर्चे है चलते/जिद की जो हमने तो पापा जी अपने/न चाहते भी उधारी करेंगे/रहने दो, रहने दो ये महंगे खिलौने/ जेब पर अपनी ये भारी पड़ेंगे,’ (पृष्‍ठ 137)। अर्थ ने कितना समझदार बना डाला है बच्‍चों को कि वे अपना बचपन भी इस महंगाई के सामने समर्पित, नहीं सरेंडर कर देते हैं। कवि की दृष्टि यहां गहरी होकर भीतर तक हिला जाती है, बच्चों की बेबसी से।
विज्ञान की दौड़ और शहरीकरण की बीमारी के चलते आज के बच्चों का प्रकृति से निकट का वास्ता लगभग टूट ही गया है। कवि ने बच्चों के दर्द की बखूबी पकड़ा है- ‘पेड, फूल, फल पड़े ढूंढने/ हमको रोज किताबों में/हरियाली रह जाय विंधकर/सिर्फ हमारे ख्वाबों में/ ऐसा जीवन नहीं चाहिए (पृष्‍ठ 163)। चिडिय़ों की कमी से भी चिंतित है बच्चा- ‘क्या उसको/बढ़ती आबादी के दानव ने मार दिया?’ (पृष्‍ठ 76)। कविता ‘पंछी बोल रहे है’ में अपील है- ‘पंछी, पेड़, जानवर, जंगल/बचे रहे तो होगा मंगल’ (पृष्‍ठ 90)। कवि यहां समग्र पर्यावरण के प्रति बच्चों की वाणी में चौकस है। विश्व में भले ही कंप्यूटर की तूती बोले, पर धरती से जुड़ा़ बच्चा, उसे ‘दुनिया का कूड़ा’ (पृष्‍ठ 163) मानता है। बच्चे तन और मन दोनों स्तरों पर फुर्ती चाहते हैं, किंतु मशीनीकरण से फुर्ती तो आई परंतु ‘मन बूढ़ा हो गया’। उल्‍लास रहित बच्‍चे ईमेल के पक्षधर नहीं- ‘ऐसी त्वरित गति किस काम की जिसमें ‘पोस्टकार्ड हो गया फिसड्डी और चिट्ठी-पत्री फेल हो रही हो’(पृष्‍ठ 146)। पत्र अपने प्रिय के पास पहुंचकर मन में जो एक अजीब सिहरन पैदा करते थे, वो फोन-ईमेल ने छीन ली। अब ‘मेल मिलाप हो गया जल्दी, पर खतरों का है ये खेल’ उन वैयक्तिक विडंबनाओं की ओर संकेत है जो उसे सहज न रख कर तनावयुक्त ही करते है, मुक्त नहीं। फोन कर संवादों में अब वह गर्माहट कहां? बड़ा प्रश्न है, ‘फ्रिज है रईसों के घर भी निशानी/ पर भैया, अमृत है मटके का पानी’ (पृष्‍ठ 126)। कविता में सप्रमाण मटके की उपयोगिता दिखी जो आधुनिक साधनों को नकारती है।
बच्चों भी प्रकृति में तर्क और जिज्ञासा सदैव से रहते आए हैं। ‘डॉक्टर अंकल’ कविता में डॉक्‍टर भी बच्‍चे के तर्क से पराजित होता दिखा। इसी तरह काली बकरी द्वारा दिया गया दूध सफेद, और हरे रंग की मेहंदी की पत्‍ती का रचाव लाल रंग का कैसे? हवा की मुट्ठी में न आना ऐसे स्थल है कविताओं के जिनमें बच्चों की प्रश्नाकुलता मूर्तिमान हुई है। यहां एक तथ्य ओर भी उल्‍लेखनीय है कि प्रत्येक कविता के साथ उसके भाव को चित्र में मूर्तिमान किया गया है। इससे कवि के मूल काव्य विम्ब योजना तक पहुंचने में सुविधा होती है।
पुस्तक फ्लेप पर उल्‍लेख है कि बाल गीतों का वय के अनुसार शिशु काल और किशोर गीतों जैसा कोई तकनीकी वर्गीकरण नहीं है। पर यह बात मेरे गले नहीं उतरी क्‍योंकि ‘धत् तेरे की अपनी किस्मत में तो बोतल का दूध लिखा है’ जैसी कविताएं शुद्धत: शिशु भाव पर केन्द्रित हैं। इसी प्रकार ‘पापा ! घोड़ा बनो’, ‘ढपलूजी रोए आँ… ऊँ’, ‘मैं त्‍या छतमुत तुतलाता हूं’ जैसी कविताएं बाल वय की एवं इसी तरह, ‘ऐसा जीवन नहीं चाहिए’ और ‘दूध वाले भैया’ आदि गीत किशोर मन की अभिव्‍यक्तियां हैं। अस्‍तु वर्गीकरण साफ है।
कवि का भाषा पर असाधारण अधिकार है। भाषा और भाव का कथनों में अद्भुत मेल है। तत्ता, म्हारा, थारा, गप्प, गुइयां जैसे विभिन्न बोलियों के शब्‍द कथ्‍य को प्रभावी बना सके हैं।
सामाजिक फलक पर बच्चों को देखें तो इस अर्थ युग में सामाजिक जीवन में बच्चे बोझ की ही अनुभूति देते हैं और यदि बोझ नहीं तो किनारे पर तो अवश्य ही कहे जायेंगे। वह यूं कि अभिजात्य वर्ग के सभी भौतिक सुविधाओं से लैस बच्चे मां-बाप के सानिध्य को तरसते हैं क्योंकि माता-पिता के पास उनसे बोलने-बताने का समय ही नहीं, मध्यवर्ग के बच्चे महंगाई और उच्च वर्ग की नकल न कर पाने से कुंठित और निम्न वर्ग के बच्चे सीमित साधनों और अभावों के कारण माता-पिता का दुलार नहीं पाते। इस प्रकार से बचपन तो साफतौर पर ठगा ही जा रहा है क्योंकि मातृ-पितृ स्‍नेह के जो दो पल बच्‍चे को मिलने चाहिए, उनसे बच्‍चे वंचित हैं और ऐसे में तैलंग जी द्वारा लिखित बाल गीत मन में गुदगुदी तो पैदा करते ही हैं, जो एक बड़ी बात है आज के वक्त में। कुल मिला कर कहा जाए तो निराश होने की बात नहीं है। राष्ट्रकवि दिनकर ने समाजवाद के पक्ष में गर्जना की थी, ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ की टोन पर तैलंग जी ‘सड़कें खाली करो कि बच्चे आते हैं’ की घोषणा करते हैं तो एक आशा बंधती है कि आगामी कल बच्चों का होगा, जिन पर भविष्य का भार है। पुस्तक बाल साहित्याकाश मैं एक सितारा बन कर चमकेगी इसी आशा के साथ और कवि के लिए सतत लेखन की शुभकामनाओं के साथ।

पुस्‍तक: मेरे प्रिय बालगीत (संग्रह, 2010), पृष्‍ठ: 180, मूल्‍य:250 रुपये प्रकाशक : कृतिका बुक्‍स, 19 रामनगर एक्‍स्‍टेंशन-2, निकट पुरानी अनारकली का गुरुद्वारा, दिल्‍ली-110051

2 comments:

  1. Is sundar sangrah ke liye badhayi swikaaren.

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  2. सम्मान्य भाई साहब , आप तो बाल साहित्य के सिरमौर हैं . पुस्तक की समीक्षा भी यह सहज सुप्रमाणित करती है . पाठक जी के साथ - साथ आपको भी हार्दिक बधाई .

    भगवन ! हमको ऐसा वर दो

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