आज बस इतना ही ............... 1 मई, 2013
तू दुश्मन है तो दुश्मन की तरह से पेश मुझसे आ.
ये क्या कि जब मिलूं आंखों में भर लाता है तू दरिया.
पुराने वक्त में फिर लौटने की शर्त अब कैसी
मैं भी हूं अब कहां वैसा , न तू ही अब रहा वैसा.
न जाने कौनसी जिद थी, न जाने कौनसा हठ था,
बड़े कमजोर निकले हम, निभा पाए न इक रिश्ता.
वो शब हो या सुबह कुछ इस तरह से जिंदगी काटी
कि गुस्से में हंसी फूटी, हंसी में आ गया गुस्सा.
ये कुछ जज़्बात ही तो थे जो शोलों से दहक बैठे,
न फिर कोई घटा छाई, न फिर पानी कहीं बरसा.
ये कैसी जंग है जिसमें किसी पर वार करने को
न तेरा ही है मन करता, न मेरा ही है मन करता.
- रमेश तैलंग
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