खबर नहीं ये, जो पढ़ते ही बासी हो जाए.
ये गज़ल है, सुने तो रूह प्यासी हो जाए.
मैं हूं अदीब, कोई बुतपरस्त आए तो
मेरी दुआ है ये काबा भी कासी हो जाए.
शहर के दंगों पे तो तब्सिरे तमाम हुए,
अमन की बात भी अब,चल, जरा सी हो जाए.
गले मिलता हूं मैं सबसे,ये सोचकर शायद
उड़न-छू आंखों से गहरी उदासी हो जाए.
वो एक बार मेरी जिंदगी में आए तो
अमा की रात भी ये पूर्णमासी हो जाए.
- रमेश तैलंग
चित्र सौजन्य: गूगल
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