एक किताब
एक किताब पड़ी थी अलमारी में कई महीने से .
मुद्दत बाद मिली तो रोई लिपट-लिपट कर सीने से.
कहा सुबकते हुए - ' निर्दयी अब आए हो मिलने को
जब गाढ़े संबंधों के आवरण हो गए झीने से.
और जरा देखो, कैसे बेनूर हो गए ये अक्षर
कभी चमकते थे जो अंगूठी में जड़े नगीने से.
और याद है? जब आंखें भारी होते ही यहां-वहां
सो जाते तुम मुझे सिरहाने रखकर बडे करीने से
किस मुंह से अब अपना ये सर्वस्व सौंप दूं फिर तुमको
धूल धूसरित देह पड़ी है लथपथ आज पसीने से.
- रमेश तैलंग
चित्र सौजन्य: गूगल
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