Sunday, July 22, 2012

अवधूता, गगन घटा गहराई रे




मेधा बुक्स,एक्स -११, नवीन शाहदरा, दिल्ली-३२ द्वारा प्रकाशित कुमार गन्धर्व पर उनके अंतरंग मित्र वसंत पोतदार द्वारा बहुत आत्मीयता से लिखी गई एक अदभुत किताब : (मूल्य सजिल्द ३००/- रूपये/ पेपरबैक ७५/- रुपये - )
इसका एक अंश  इसी किताब से साभार
अवधूता, गगन घटा गहराई रे


पश्चिम दिशा से मृत्यु के कृष्ण मेघ बहते आ रहे हैं (पच्छिम दिशा से उल्टी बदली). विचक्षण कुमार गन्धर्व को डेढ़ महीना पहले ही उसका आभास हुआ होगा. यम नामक ठगवा अपनी जीवन-नगरी लूटने आ रहा है, इसका आभास. अर्थात यह संगति उनकी मृत्यु के बाद ही लगाईं गई.
     मृत्यु से एक महीना दो दिन पहले, यानी १० दिसंबर १९९१ को कुमार जी की एक महफ़िल पुणे के मशहूर सवाई गन्धर्व संगीतोत्सव में हुई. उनकी बुलंद और अनहतनाद  की पुकार करनेवाला सुर पुणे में ही  आखिरी बार गूंजा.
     उससे पूर्व बंगलौर में वास्तुशिल्पी चंदावरकर के घर महफ़िल हुई. वह आखिरी  खासगी (प्राइवेट) बैठक हुई. कुमार जी के एक बड़े हितचिन्तक थे, केनरा बैंक के सर्वेसर्वा श्री कामत. उनकी मृत्यु भी कुमार जी को झेलनी पड़ी थी. कामत साहब की पत्नी श्रीमती निरुपमा कामत बंगलौर में थीं. उनसे मिलकर कुमार जी मल्लेश अप्पा (मल्लिकार्जुन मंसूर) से मिलने धारवाड गए. साथ थे श्रीराम पुजारी और राम कोल्हटकर. घंटाभर मल्लेश अप्पा से कांनडी में बातचीत करके निकलते वक्त कुमार जी ने अपने मित्रों से कहा था-मल्लेश अप्पा नामक झरना फिर से शुरू हुआ है. अब यह गाना रुकेगा नहीं.
     मगर कुमार  गन्धर्व नामक झरना सूख ही गया और फिर मल्लिकार्जुन मंसूर भी शांत हो गए.
     गंगूबाई हंगल से भी कुमार जी आखिरी  बार मिलकर आए. फिर ऐसे गायक के पास गए और खाना खाकर आए जिनके पास कुमार जी पहले कभी गए नहीं थे. उनका नाम संगमेश्वर गुरव.
     बाद में बेलगांव में परिवार के साथ दो दिन रहे. कुमार जी ने बेल्लारी से अपनी बहन को बुलवा लिया था और मिराज से बुलाया ठा गन्धर्व महाविद्यालय मंडल के सचिव श्री बलवंत गोपाल जोशी को. मिराज के केन्द्रीय मंडल के कार्यालय में संगीत का जो विशाल संग्रहालय है, उसका कैटलाग कुमार जी के पास हमेशा रहता. बेल्गाओं के सत्कार होटेल में कुमार जी ने जोशी से कहा मुझे खट राग पर काम करना है. आपके पास जितना खट होगा  कृपया टेप करके भेज दीजिए.
     कोमकली-परिवार से अंतिम बार मिलकर कुमार जी कोल्हापुर से होते हुए पूना गए. प्रो. चिरमुले  की बीमारी के कारण पुणे में वे श्रेयस होटल में रुके. गत दस-बारह वर्ष कुमार जी का पुणे का मुकाम चिरमुले  जी का घर होता था. भोर होते ही दोनों उठ जाते थे और मध्यरात्रि तक संगीत चर्चा चलती रहती.
     चिरमुले  के पास बहुत समय चुपचाप बैठे रहे कुमार जी. उठने के बाद बोले मार्च ९२ में फिर से आ रहा हूं पुणे. तब तक तंदरुस्त हो जाइए. चिरमुले  अब उठेंगे नहीं यह कुमार  जी को पता चल चुका था.
रामजी देशमुख के पास मुम्बई में अनेक साल रहे थे कुमार जी. उनके कुछ हितचिंतकों में से एक था देशमुख दम्पती. सेवानिवृत्ति के बाद रामजी पुणे में स्थापित हो गए हैं. उनसे आखिरी  बार मिलने गए कुमार जी और बातों- बातों में क्षमा-याचना करते हुए बोले, रामजी, पुणे में मैं आपके बजाय चिरमुले  जी के पास रहता हूं, इसका बुरा मत माना. मैं आपका ही हूं.
फिर कलापिनी से कुमार जी ने ठुमरी गाने को कहा, उसकी आवाज भानु जैसी ही है यह भी कहा. फिर घंटाभर ठुमरी पर बोले. बड़े गुलाम अली ने ठुमरी कितनी और कहां-कहां सुनाई- यह जानकारी देते हुए कुमार जी ने कहा ठुमरी की सुरावत गायक को एस्त्ब्लिश करनी चाहिए. सिर्फ शब्द नहीं. नदिया किनारे मोरा गांव ये शब्द ही ठुमरी नहीं. भाव, रस, स्वर से बनती है ठुमरी. उसके बाद खयाल कहां खत्म होता है और ठुमरी कहां शुरू होती है-यह विषद कहने के बाद कुमार जी ने ठुमरी पर नृत्य भी किया.
नया साल शुरू हुआ-१९९२. देवास में कड़ाके की ठण्ड थी. इनदोर की मित्र-मण्डली को नए साल की शुभकामनाएं देना हर साल का कार्यक्रम. रविवार, पांच जनवरी को जाने का तय हुआ. चाणक्य मलिका देखकर कुमार जी सपरिवार इंदौर गए. सुबह से ही उन्हें बुखार था. यात्रा के काबिल नहीं था स्वास्थ्य. फिर भी आम्ही जातो अमुच्या गाव-संत तुकाराम (हम चले हमारे देस), यह मन ही मन कहकर अपने दीर्घ साथ के मित्रों को आखिरी राम-राम करने वे गए.
भानुकुल में आते ही वे बोले-कुछ ठीक नहीं लग रहा.
शरीर तप हुआ देखकर ताई ने थर्मामीटर लगाया तो डेढ़ डिग्री ताप. बुखार आया है यह पहले कहा होता तो इंदौर नहीं जाते. ऐसा ताई के कहते ही कुमार जी बोले-सबको मिलना था. कुमार जी ने यह नहीं कहा कि आज न जाते तो फिर कभी जाना न होता. क्योंकि अगले रविवार से (५ जनवरी से) मृत्यु तक वे बिछौने पर ही पड़े रहे. पहले पांच दिन बुखार, फिर दस्त, आखिर में दमा.
मगर पत्नी से उन्होंने कहा कि ये बीमारी मेरे वश की नहीं लगती. इस बीमारी में मैं समाप्त हो जाऊंगा-ऐसा मुझे लगता है. प्रखर जिजीविषा का, क्षय से लेकर अपंगावस्था तक के रोगों से लड़नेवाला यह लड़वैया क्षुद्र फ्ल्यु के बुखार से बचूंगा नहीं कह रहा था. उससे पूर्व कुमार जी अपनी बीमारी के बारे में हंसते हुए कहते आए थे-कोई भी बीमारी हुई कि मैं उसका बारीकी से अभ्यास करता हूं. इसलिए कि वह फिर से आई तो उससे कैसे लड़ें - इसकी तैयारी हो तो अच्छा. मगर वह फिर से आती ही नहीं. च्या मारी, नया ही कुछ उभरता है. एक बार की आई हुई बीमारी फिर मुंह नहीं दिखाती. हर बार बीमारी की नई ही गायकी होती है साली.
१० जनवरी को बुखार उतरा तो दस्त शुरू हुए. हर बार उठ रहे हैं. संडास जा रहे हैं. रात को स्थिति विकट हुई. कपड़े गंदे होने लगे. आखिर ११ जनवरी को इंदौर में डॉ. मुकर्जी के पास जाने का तय हुआ. उसमे भी दो रोडे. एक- भयानक ठण्ड. दो- उस दिन इंदौर बंद की घोषणा थी. डॉक्टर ने अस्पताल में भर्ती करने को कहा तो कुछ तकलीफ न हो, इसलिए देवास से चाय-कॉफी सहित सब आवश्यक सामन लेकर ताई और कलापिनी निकले. जुलाब काबू में आ रहे थे, मगर सांस जोरों से चल रही थी.
डॉ. मुकर्जी ने सघन जांच की. मृत्यु बारह गंतों पर जीवन की राह हमेशा के लिए रोकने को चाहे खड़ी है, मगर डॉक्टर ने अंदाजा और ही लगाया., डरों मत! सांस जोर से चल रही है, फिर भी वर्स्ट इज ओवर. अपताल में दाखिल करने की ज़रूरत नहीं..मैं दवाई देता हूं, वह लीजिए.
देवास का वापसी प्रवास! कुमार जी ने कुछ महीन पहले पान -तम्बाखू छोड़ दी थी. मगर क्षिप्रा के पास गाड़ी रोककर उन्होंने मालवी पां मंगाया. गाड़ी रोककर ही उन्होंने तबीयत से पां का स्वाद लिए. थूकने के बाद बोले, देवास के डॉक्टरों के नाम यह पान थूका है. अब उन्हें तबीयत नहीं दिखाऊंगा.
सच तो यह कि उन्होंने जीवन के नाम पर ही पान थूका था. १९६१ साल में उन्होंने पूर्व अफ्रीका के दौरे पर पान थूका था. अब सीधे उन्होंने जिंदगी पर ही थूक डाला.
शाम को भानुकुल में आए. दमा अचानक बढ़ गया. ऑक्सीजन की नाली घर में थी. मगर मीटर बिगड़ा हुआ था. कलापिनी अस्पताल से नई नाली और मास्क लाई. वह सिलिंडर आधा ही भरा हुआ था. घर का फोन उसी वक्त नादुरस्त हुआ. रात नौ बजे ताई नई नली लाई. रात दस बजे दमे का जोर ज्यादा ही बढ़ गया. मगर कुमार जी ने डॉक्टर को बुलाने नहीं दिया.
जुलाब चालू थे ही. खुद चलकर संडास जाते कुमार जी. रात सवा तीन बजे वे संडास गए. कमोड  पर बैठे और हृदय-विकार  का जबरदस्त झटका. अपनी काया-नगरी में रहने वाला आत्मा यानी हंस-कब उड़ गया, यह कुमार जी को भी पता न चला होगा.
कुमार जी को कितना नया करना था! संगत के वाद्य लिए बिना सिर्फ दो तान्पूरों में ही गाना था. सिर्फ तराना-गायन का कार्यक्रम करना था. वैसा ही केवल गज़लों का. खट राग पर भी महफ़िल करनी थी. और भी कई प्रयोग करने थे.सब रह गया....
रामू भैय्या दाते कहते –‘सारे कलाकार मरकर स्वर्ग जाते हैं. कुमार स्वर्ग से ही प्रथ्वी पर उतरा है, वह मरने के बाद कहां जाएगा?
कुमार जी कहीं भी गए हों, मगर वे अब अपने में नहीं - यह है रेगिस्तानी सत्य. जग में सात आश्चर्य हों या सात सौ, अब्बल नंबर का आश्चर्य है मृत्यु.
कुमार गन्धर्व संगीत-सृष्टि का एक दुर्लभ कलाकार!
मृत्यु सम्पूर्ण सृष्टि को ही दुरगम्य!
     
 -कुमार गन्धर्व-वसंत पोतदार (मेधा बुक्स, दिल्ली-३२ से साभार)

1 comment:

  1. पुस्तक पढ़ने की लालसा जाग उठी मन में...
    आभार आपका
    सादर
    अनु

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