Sunday, June 5, 2011

सर्वेश्वर की प्रयोगशील बाल कहानियां




सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने बच्चों के लिए कहानियाँ कम लिखीं पर जितनी भी लिखीं उनकी पहचान सबसे अलग है, चाहे वह कंटेंट की दृष्टि से हो या फॉर्म की दृष्टि से. उनकी बाल कहानियों के पात्र निम्न- मध्य वर्ग के ऐसे बच्चे हैं जो गरीब तो हैं पर खुद्दार भी हैं. ऐसा नहीं है कि उनके अंदर लालसा नहीं जगती , जगती है, मगर वह ऐसी लालसा नहीं है जिसकी पूर्ति दूसरों की दया पर आश्रित
हो. वे अपने सीमित संसाधनों या कहिए अपने वर्तमान भाग्य से संतुष्ट हैं और अगर उन्हें कुछ अतिरिक्त की चाह है भी तो वे उसे स्वयं द्वारा अर्जित करना ज्यादा पसंद करते हैं न कि भीख मांग कर.

"देख पराई चूपडी मत ललचावे जीभ, रूखी सूखी खायके ठंडा पानी पीव." वाली कहावत ऐसे पात्रों पर सटीक बैठती है.

इच्छाओं की पूर्ति न हो तो मन के अंदर एक ऊहां-पोह चलने लगता है और अगर वह मन बालक का हो तो स्थिति और भी चिंतनीय हो जाती है. इस अनुभूति को सर्वेश्वर जितनी शिद्दत के साथ महसूस करते हैं, वह देख कर आश्चर्य होता है. उदहारण के लिए सर्वेश्वर की दो चर्चित बाल कहानियाँ "अपना दाना" और "सफ़ेद गुड" को ले लीजिए. इन दोनों ही कहानियों के मुख्य पात्र निम्न-मध्य वर्ग के बच्चे हैं जिनके कोई नाम नहीं हैं. गरीबों के भी भला क्या नाम होते है, हाँ, उनके सर्वनाम हो सकते हैं. इसीलिये सर्वेश्वर की ये कहानियां कुछ इस तरह से शुरू होती है -

(अपना दाना )-
"वह एक गरीब लड़का था. स्कूल जाते समय उसकी माँ उसके बस्ते में थोड़े से चने रख देती थी. खाने की छुट्टी में वह कक्षा के बाहर सीढ़ियों पर बैठकर उन्हें खाता था......उसकी माँ ने कह रखा था बेटा, अपना दाना ही खाना चाहिए, न दूसरों से माँगना चाहिए न लालच करना चाहिए."

(सफ़ेद गुड)-
"दूकान पर सफ़ेद गुड रखा था. दुर्लभ था. उसे देखकर बार-बार उसके मुंह में पानी आ जाता था. आते-जाते वह ललचाई नज़रों से गुड की ओर देखता, फिर मन मसोस कर रह जाता."

सर्व विदित है कि गरीब आदमी दूसरों के लिए वह सब कुछ करता है जो वह अपने लिए नहीं कर पाता. मसलन वह दूसरों के लिए एक से एक शानदार इमारतें बनाता है पर स्वयं खुले आसमान तले रह जाता है. दूसरों के लिए सुख सुविधाओं का अम्बार लगाता है पर स्वयं के लिए टूटी खाट भी नहीं जुटा पाता. कहने का तात्पर्य यह है कि मजदूर की विरासत तो हो सकती है, पर रियासत नहीं.

"अपना दाना" का मुख्य पात्र "वह लड़का" जब अपने दोस्त के लिए खोमचे वाले के चक्के की सूई घुमाता है तो सुई १०० के अंक पर रूकती है. दोस्त कहता है -"तू बड़ा भाग्यवान है. हम सब सूई घुमाते हैं, पर दस-पांच पर ही घूमकर रुक जाती है, सौ पर नहीं रुकती. तूने तो मज़ा ला दिया. लोग कहते हैं, जो नेक होता है, उसका हाथ जहाँ भी लगता है बरक्कत होती है . तू नेक है, यह साबित हो गया."

लेकिन जब अक्सर ऐसा होने लगता है और उसकी शोहरत एक "नेक लड़का" होने की फ़ैल जाती है तो लड़के के अंदर अपनी स्वयं की एक इकन्नी होने की इच्छा बलबती होने लगती है जिससे वह सूई घुमा कर ढेर सारे बिस्किट खाने का मज़ा ले सके. इसलिए वह माँ से कहता भी है कि उसे एक इकन्नी चाहिए. पर माँ से जब उसे सुनना पड़ता है कि इकन्नी में कितने और जरूरी काम हो सकते है तो वह मन मसोस कर रह जाता है. एक दिन हिम्मत कर माँ की संदूकची से इकन्नी ले अपनी अंटी में खोंस कर वह स्कूल जाता है तो तब तक स्वप्न लोक में विचरता है जब तक खाने की छुट्टी में वह खोमचे वाले के पास नहीं पहूँच जाता पर हाय री किस्मत, अंटी में रखी इक न्नीअचानक गायब हो जाती है. खोमचा वाला उसकी दयनीय स्थिति देख कर उससे कहता है-"पैसे गिर गए? कोई बात नहीं, तुम चक्का चलाओ , पैसे कल दे देना. पर लड़का तैयार नहीं होता और सोचने लगता है -" आखिर इकन्नी कहाँ गई. उसे जरूर चोरी की सजा मिली है, उसने लालच किया है "

घर पहुँच कर वह उदास हो जाता है और जब शाम को माँ अपना हिसाब लगाते हुए कहती है-"बेटा तेरी किस्मत अच्छी है, देख कागज के नीचे से एक इकन्नी निकल आई. तू मांग रहा था न. ले इसे कल स्कूल ले जाना, जो जी में आये खाना.
पर लडके की हिम्मत नहीं होती उठने की और माँ है कि अँधेरे में देख भी नहीं पाती कि वह रो रहा है.

कहानी का यह एक ऐसा स्थल है जो संवेदना के स्तर पर मन के बहुत गहरे जाकर छूता है.

कमोबेश इसी तरह की स्थितियां "सफ़ेद गुड " कहानी में मिलती हैं. वहाँ भी एक ग्यारह साल का गरीब लड़का है जो सफ़ेद गुड खाने के लिए बेचैन है. माँ बाजार से नमक लाने के लिए भेजती है पंसारी के यहाँ. वहाँ सफ़ेद गुड भी है पर
लड़का है कि पैसे न होने के कारण अपनी इच्छा पूर्ति नहीं कर पा रहा है. ईश्वर में उसकी आस्था जागती है तो मस्जिद के सामने खड़े हो कर मन ही मन कहता है: ईश्वर, यदि तुम हो और मैंने सच्चे मन से तुम्हारी पूजा की है तो मुझे पैसे दो, यहीं इसी वक़्त."

ईश्वर उसकी सुन लेता है और दिवास्वप्नावस्था में जैसे ही ठंडी ज़मीन पर हाथ रखता है तो उसकी हथेली में एक अठन्नी दमक रही होती है.

अठन्नी को पंसारी की दुकान पर उछालते हुए वह कहता है: आठ आने का सफ़ेद गुड देना:
पंसारी अठन्नी को उछलते हुए देखता है पर उसे अठन्नी नहीं मिलती. लड़का निराश हो जाता है. लड़के को दुखी देख कर पंसारी
कहता है:"गुड ले लो, पैसे फिर आ जायेंगे." लड़का नहीं लेता. पंसारी फिर कहता है: अच्छा पैसे मत देना, मेरी ओर से थोडा-सा ले लो." पर लड़का खुद्दार है नहीं लेता. "गुड उसने ईश्वर से माँगा था, पंसारी से नहीं. दूसरों की दया उसे नहीं चाहिए.

अब लड़के की आस्था डगमगा जाती है." मस्जिद रोज सामने पड़ती है लेकिन अब वह ईश्वर से कुछ नहीं मांगता." यह एक ऐसा सन्देश है जो लाउड न होकर भी मारक बन जाता है.

एक तरह से देखा जाए तोसर्वेश्वर की ये कहानियां आम बाल कहानियों के फ्रेम में फिट नहीं बैठतीं क्योंकि इनमे कथ्य से ज्यादा बच्चे के अंतर्मन की गुत्थियों की अभिव्यक्ति है.

अंतर्मन की बात चली है तो इसकी अभिव्यक्ति सर्वेश्वर की एक और बाल कहानी "अब इसका क्या जवाब है?" में भी हुई है पर थोड़े अलग ढंग से. बच्चों के मन में अनेक तरह के भय पनपते हैं. इनमे से एक भय है भूत का भय. क्या भूतों का सचमुच अस्तित्व है? अँधेरे में एक सफ़ेद सी आकृति भूत की ही हो जरूरी तो नहीं. वह किसी सांड की भी हो सकती है. पर सर्वेश्वर इस कहानी में कोई निश्चित जवाब न देकर एक बीच का रास्ता अपनाते हैं:

"नहीं, वह भूत ही था, तुझे देखकर सांड बन गया होगा. भूत अक्सर वेश बदल लेते हैं.

सर्वेश्वर की ही एक और कहानी है "जूं चट्ट पानी लाल"

लोक कथा की शैली में लिखी गई यह बाल कहानी पढ़ने में जितनी अच्छी लगती है उससे कही ज्यादा अच्छी सुनने में लगती है.
बात से बात कैसे निकलती है और फिर उन बातों को कैसे पर लग जाते हैं यह देखना हो तो इस कहानी को जरूर पढ़ा जाना चाहिए.. गौर करने की बात यह है कि इस कहानी की मुख्य पात्र भी एक निम्न परिवार की लड़की है. ऐसी लड़की जो हमेशा धूल में खेलती थी जिसके कारण उसके सिर में जुएं भर गयीं. माँ जुएं निकाल लड़की हथेली पर रखती जाटी , लड़की उन्हें नाखून पर रखकर मारती जाती. नतीजा,उसके नाखून लाल हो गए. वह लाल नाखून नदी पर धोने गई तो नदी ने पूछा-"लड़की, लड़की, तेरे नाखून कैसे लाल हो गए? लड़की ने उत्तर दिया, "जूं चट्ट, पानी लाल".

कहानी आगे बढ़ती है और सवाल-जवाब की सीढियां चढती हुई अपने मुकाम पर इस तरह पहुँचती है: जूं चट्ट, पानी लाल/सींग सड /पत्ते झड/कुआ काना/बनिया दीवाना/रानी नचनी/राजा ढोल बजावें/

अब राजा ढोल बजा रहे हैं और उन्हें देख कर लोग नाच रहे हैं. " किसी को यह पता नहीं लगा कि इसका कारण क्या है."

कई बार मुझे लगता है कि सर्वेश्वर की रचनाओं में, फिर चाहे वे बाल रचनाएं ही क्यों न हो, तीखे व्यंग्य की प्रछन्न उपस्थिति ठीक उसी तरह रहती है जैसी कि चर्चित कहानी "राजा नंगा है" में मिलती है.

और अब अंत में सर्वेश्वर की सबसे छोटी पर सबसे अधिक मार्मिक बाल कहानी "टूटा हुआ विश्वास "
.
कक्षा का काम पूरा न हो पाने के कारण मास्टर जी की प्रताडना का डर बच्चे के मन पर कुछ ऐसा दुष्प्रभाव डालता है कि उसकी हँसती-खेलती दुनिया एक डरावने जंगल में बदल जाती है.. तीन पेराग्राफ की इस कहानी पर कोई टिपण्णी करनी हो तो इसे चंद शब्दों में "छोटे कद की बड़ी कहानी" कहा जा सकता है.

मैं समझता हूँ, सर्वेश्वर हमारे समय के एक बड़े ही प्रयोगधर्मी रचनाकार रहे हैं इसलिए उनकी रचनाओं की विशिष्टता उनकी एक अलग तरह की पहचान बनाती है.

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