एक सक्षम फिल्म निर्देशक और सहृदय शायर के रूबरू होना
- रमेश तैलंग : 22.02.2019
मैं कहना ये चाहता हूँ कि विवेक शर्मा जितने सक्षम फिल्म निर्देशक हैं उतने ही संवेदनशील, सहृदय कवि, लेखक और स्क्रीन रायटर भी हैं।
यह इत्तेफाक ही है कि मेरी उनसे पहचान एक शॉर्ट फिल्म की स्क्रिप्ट के जरिये हुई जिसे मैंने उनके पास भेजा था और जो अभी मुकम्मल फिल्म के रूप में आने की बाट जोह रही है। सोशल मीडिया पर तो मेरा विवेक से निरंतर संवाद रहा है लेकिन उनसे जब पहली व्यक्तिगत मुलाक़ात हुई तो उन्हे देखकर मुझे लग गया था कि इनसे अपनी पटरी सही बैठेगी। एक तो वे जबलपुर मध्यप्रदेश के हैं इसलिए उसी प्रदेश का होने के नाते मेरा आत्मीय नाता उनसे जुड़ा हुआ है। दूसरे, खास बात यह है कि फ़िज़िक्स में मास्टर डिग्री लेकर भी वे साहित्य के परम अनुरागी हैं. भूतनाथ के अलावा उनके खाते मेंअभी कुछ और फिल्में हैं जो निर्माणाधीन हैं लेकिन इतना तो तय है कि उनका cinematic vision और dedication गजब का है। संवेदनशील होने के नाते उनका साहित्य से अनुराग स्वाभाविक है और यह महत्वपूर्ण इसलिए है कि वर्तमान में फिल्म और साहित्य का नाता अत्यधिक झीना हो गया है।
विवेक शर्मा की शायरी की पहली किताब "मोहब्बत उर्दू है" (नुक्तों की गैरमौजूदगी के लिए क्षमा करें) जब प्रकाशित हो कर सामने आई तो उसकी सूचना और मानार्थ प्रति उन्होने अपने आत्मीय जनों मे शामिल कर मुझे भी दी। इस किताब से गुजरते हुए मैं एक बात पहले ही रेखांकित कर दूँ कि ये पंक्तियाँ विवेक शर्मा की शायरी की किताब की मुकम्मल समीक्षा नहीं है.। इस किताब की कुछ विशेषताएँ हैं जिन्हें अपनी टिप्पणी के साथ मैं आपके समक्ष रखना चाहता हूँ।
पहली बात तो यह, कि इस किताब को शायरी के साथ रंगीन तस्वीरों के साथ बहुत ही खूबसूरती से सजाया गया है। इस खूबसूरत संयोजन के कुछ फायदे भी हैं और नुकसान भी हैं _ "लफ़्ज़ जहां खामोश हुए तस्वीर वहाँ पर बोल उठी "। आर्ट पेपर पर छपे लगभग 60 प्रष्ठों में सिमटी इस किताब में विवेक शर्मा ने अलग अलग "मूड्स" के साथ अपने दिली जज़्बातों को जुबान दी है। ये शायरी निश्चित रूप से मयारी शायरी नहीं है लेकिन
उसमें एक कवि एक शायर की ईमानदारी हर जगह नज़र आती है। कुछ शेरों का मिजाज रूमानी है तो कुछ शेर ज़िंदगी के फलसफे का बयान करते हैं और किसी शेर मे शायर की :ख़्वाहिश अपने बचपन में खो जाने की ओर इशारा करती है। ( बादलों में खोना चाहता हूँ/मैं कुछ होना चाहता हूँ/नहीं होना मुझे बड़ा/मैं बच्चों सा रोना चाहता हूँ/"
एक खास बात और कि विवेक मोहब्बत को अलग अलग समय पर या अलग अलग मूड में कभी उर्दू तो कभी खुशबू की मानिंद देखते हैं और कभी ये भी कह पड़ते हैं - " के लफ्जों से ये बयां नहीं होती /जहां मोहब्बत है वहाँ जुबां नहीं होती/"
माँ के प्रति विवेक शर्मा का अप्रतिम आदर और अनुराग है इसीलिए एक जगह वे कहते हैं -"मांग ले मन्नत कि ये जहां मिले/मिले वही गोद फिर वही माँ मिले/"
मेरा मानना है कि मुखतलिफ़ मूड्स की ये मुखतलिफ़ शायरी आज के युवा वर्ग को अवश्य पसंद आएगी, हाँ, मयारी शेरो-शायरी के हुनर और फ़न के उस्तादों की, हो सकता है इस किताब के बारे मे अलग राय हो, पर यहाँ यह भी नहीं भूलना चाहिए कि कवि या शायर के रूप मे विवेक शर्मा की यह पहली किताब है। बेलाग शायरी के अलावा अपनी साज-सज्जा मे ये इतनी खूबसूरत है कि उसे देखकर ईर्ष्या होती है और मन मेँ सवाल उठता है कि हिन्दी/उर्दू के प्रकाशक साहित्यिक iपुस्तकों की साजसज्जा पर समुचित ध्यान देने मे कंजूसी क्यों करते हैं?
इस किताब के प्रकाशन पर , मैं विवेक शर्मा को हार्दिक शुभकामनायें देता हूँ और चाहता हूँ कि वे सिनेमा और साहित्य की दो धारी तलवार पर अपने कदम रखने से पीछे न हटें...हम जैसे साहित्य-प्रेमियों के लिए उनका यह महत्वपूर्ण देय भी होगा और प्रेय भी ।