इस बार बीते सितंबर में बीकानेर की यात्रा
एक तरह से शोक-यात्रा थी। मेरे छोटे साले योगश गोस्वामी का हृदयाघात से असामयिक
देहांत हो गया था। दशाह आदि की रस्मों के उपरांत शोकाकुल मन बदलने के लिहाज से कुछ
परिजनों के साथ कोलायतजी और कोडमदेसर जाने का कार्यक्रम बन गया। कोडमदेसर तो पिछले
वर्ष भी गया था जब योगेश और उसकी पत्नी अरुणा भी साथ थे पर इस बार योगेश की
स्मृतियां ही साथ रहीं।
इससे पूर्व बीकानेर अनेक बार आया हूं पर
कोलायतजी जाने का यह पहला अवसर था। परिसर में प्रवेश करते ही कोलायतजी के सरोवर
में बिखरी हरीतिमा और खिलते श्वेत कमलों
का समूह देखा तो अनिर्वचनीय दिव्य आनंद की अनूभुति हुई। जांगलू प्रदेश के नाम से
कभी विख्यात रही यह भूमि, जहां जल के स्थान पर
रेत के ढूहे और वनस्पति के नाम पर खेजड़ा, नीम, बबूल और बेर की झाडि़यों की ही कल्पना
की जा सकती है, वहां कोलायत जी के सरोवर में श्वेत
कमलों को खिलते देखना मेरे लिए किसी चमत्कार से कम नहीं था।
पिछले शताधिक वर्षों में बीकानेर अपने
पारिस्थितिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक वातावरण के
लिहाज से काफी कुछ बदला है पर उसकी मूल प्रकृति, जो शौर्य और कलासंपन्नता के साथ-साथ सांप्रदायिक सद्भाव की है, जस की तस रही है। बीकानेर का जन्म किस तरह हुआ इसकी लोकश्रुत कथा आगे कहूंगा, पर अभी जरा कोलायतजी
की बात कर लूं।
‘कोलायतजी बीकानेर के दक्षिण पश्चिम में
स्थित है। यहां कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को मेला लगता है। मेले में हजारों
श्रद्धालु एकत्रित होते हैं जिनमें साधारणजन के अलावा नागा सन्यासी, त्रिदण्डी सतनामी आदि अनेक संप्रदायों के लोग भी होते हैं जो मिलकर कपिल
महामुनि की समाधि की पूजा-अर्चना करते हैं। यहां एक विशाल सरोवर है जिसका उल्लेख
पुराणों में बिन्दु सरोवर के नाम से मिलता है।’ लोकश्रुति है कि समुद्र के पीछे हट जाने अथवा सूखजाने से यह भूमि मरु में
परिवर्तित हो गई। पहले इस भूमि पर कभी सरस्वती नदी प्रवाहित हुआ करती था। वह नदी
तो अंतःसलिला बन चुकी पर राजस्थान में वर्षा-जल के भंडारण तथा संरंक्षण की जो
पारंपरिक प्रविधियां शताब्दियों से प्रचलित रही हैं वे आज भी दुनिया को चमत्कृत
करती हैं। पर्यावरणविद् श्री अनुपम मिश्र तथा राजेन्द्र सिंह के व्याख्यानों में
राजस्थान की अनूठी जलसंरक्षण प्रविधियों
का उल्लेख कई बार हुआ है।
कोलायतजी में जिस बिंदु सरोवर का उल्लेख
मैंने किया, उसी के किनारे पर परमयोगी सांख्याचार्य
महामुनि कपिलदेव जी का मंदिर है। (तदवीरासीत पुण्यतम क्षेत्रं त्रैलोक्य
विश्रुतम/नाम्ना सिद्धिपदं यत्र सा संसिद्धिमुपेयुषी/तस्मिन बिन्दुसरेवासीत् भगवान
कपिलः किल। (श्रीमद्भागवत महापुराण)
ऐसी मान्यता है कि मां देवहुति को
कपिलदेव जी ने इसी स्थान पर सांख्य दर्शन का उपदेश दिया था। (यः करुणाकरः कृपालु
भगवान कपिलाः स्वकीये अत्यल्पे वयसि स्व मात्रये/देवहूत्यै जगदुद्धारकारकं
सांख्ययोगं च सविस्तरम प्रोवाच उपदिष्टवान।(संदर्भ – वही)
धार्मिक दृष्टि से परे अब पर्यटन दृष्टि
से भी कोलायतजी एक महत्वपूर्ण स्थान बन चुका है। वहां की प्राकृतिक सुंदरता सभी को
आकर्षित करती है। वापस आते हुए कोडमदेसर रास्ते में ही था इसलिए वहां भी जाना हो
गया। कोडमदेसर वही जगह है जहां बीकानेर के जन्मदाता राव बीका जी ने अपनेे पिता
जोधपुर नरेश राव जोधा सिंह की व्यंग्योक्ति से आहत होने के बाद चाचा राव कांधाल के
सहयोग से नया राज्य स्थापित कर अपने को राजा घोषित किया था।
इस संदर्भ में श्री गोपाल नाराण
व्यास अपने लघु शोधग्रंथ .‘बीकानेर की साहित्यक संस्थाएं और उनकी हिंदी को देन’ में इतिहासकार कैप्टेन पी. डव्ल्यू. पावलेट तथा गोरी शंकर हीराचंद ओझा द्वारा
उपलब्ध कराई गई जानकारी के आधार पर इस घटना
का रोचकता के साथ उल्लेख करते हैं -
‘‘जोधपुर के राव जोधा अपने दरबार में अपनी सभा लगाए बैठे थे, उसी समय जोधा के पुत्र राव बीकाजी दरबार में कुछ देर से पधारे और आते ही अपने
चाचा कांधलजी के कानों में धीरे-धीरे कुछ कहने लगे उनकी इस गुप्त मंत्रणा को देख
कर जोधा जी ने पुत्र की हंसी उडाते हुए कहा कि आज तो चाचा भतीजे में गहरी सलाह हो
रही है। क्या किसी नए राज्य की स्थापना की तैयारी हो रही है? बस फिर क्या था उसी दिन पिता के ताने से मर्माहत होकर राव बीका और उनके चाचा
कांधलजी ने नए राज्य की स्थापना का दृढ़ निश्चय कर लिया।
दोनों वीरों ने सौ घोड़े और पांच
सौ राजपूतों की एक सेना का संगठन किया एवं 30 सितंबर 1465 ई0 को जोधपुर से रवाना हुए। रास्ते में प्रथम पड़ाव मंडौर में डाला। वहां से वे
देशनोक पहुंचे जहां उन्हें मां करणी के दर्शन हुए। उनका आशीर्वाद प्राप्त कर उनके
आदेश के अनुसार दोनों ही वीर ससैन्य चण्डीसर में निवास करने लगे। कुछ दिनों बाद
राव बीका कोडमदेसर पहुचे एवं अपने आपको राजा घोषित किया ....... सन 1478 में राव बीकाजी ने कोडमदेसर में एक गढ़ बनवाना आरंभ किया, किंतु उनका यह कार्य भाटियों को रुचिकर नहीं लगा। फलतः इन्हें भाटियो से युद्ध
करना पड़ा। बीका जी विजित अवश्य हुए किंतु भाटियों की छेड़छाड़ बंद नहीं हुई। कांधलजी
की सलाह से बीकाजी एक सुरक्षित गढ़ के निर्माण की योजना में थे जिसके फल स्वरूप
आपने नापा सांखला से सलाह लेकर नये किले की नींव 1485 ई0 में राती घाटी पर डाली। इस किले के अवशेष आज भी हमें वर्तमान किले से दो मील
दक्षिण-पश्चिम में दिखाई देते हैं। इसी किले के आस-पास बीकाजी ने 12 अप्रेल सन् 1488 को अपने नाम पर बीकानेर नगर बसाया।’’
बीकानेर स्थापना विषयक एक दोहा भी
प्रसिद्ध है - ‘पनरै से पैतालवे सुद वैशाख सुमेर/थावर बीज थरप्पियों बीके बीकानेर’। पावलेट ने भी इसी प्रकार का उल्लेख ‘गजेटियर ऑफ द बीकानेर स्टेट’ में किया है।
इस घटना से थोड़ी भिन्न एक घटना और भी
सुनने में आती है। वह यह है कि जब राव बीकाजी अपने चुने हुए सैनिकों के साथ
कोडमदेसर पहुंचे तो उनकी भेंट नेरिया जाट से हुई जो वहां अपनी बकरियां चरा रहा था।
जब राव बीका जी ने गड़रिये को अपना मंतव्य बताया तो गड़रिया बोला- मैं आपको वो
स्थान बता सकता हूं जो नए राज्य को स्थापित करने के लिए सबसे उपयुक्त है। लेकिन नए
राज्य के साथ आपको मेरा नाम भी जोड़ना होगा। राव बीकाजी ने उसकी शर्त मान ली। तब
नेरिया जाट राव बीकाजी को लेकर राती घाटी पहुंचा और एक स्थान पर जाकर कहा कि यही उपयुक्त
स्थान है। राव बीकाजी ने नेरिया की सलाह मानकर उसी स्थान पर बीकानेर राज्य स्थापित
करने के आदेश दे दिए। नेरिया जाट को दिए बचनानुसार प्रथम दो अक्षर स्वय के नाम से
और अंतिम दो अक्षर नेरिया के नाम से लेकर राज्य का नामकरण ‘बीकानेर’ कर दिया।
इन लोकश्रुतियों से आगे चलें तो एक बात
यह भी प्रमाणित हो चुकी है कि बीकानेर में
वहां के सामंतशाहों रावराजाओं का साहित्य तथा कला के संबर्द्धन और संरक्षण में
महत्वपूर्ण हाथ रहा है ख़ासकर राव कल्याणमल जी के पुत्र पृथ्वीराज (डिंगल भाषा की
कृति-‘बेलि किसन रुक्मणि री’के प्रणेता) राव अनूप सिंह, राव गंगासिंह तथा राव शार्दूलसिंह जी का जो स्वयं भी साहित्य रचना किया करते
थे। बीकानेर स्थित विश्व प्रसिद्ध ‘अनूप संस्कृत लायब्रेरी’ राव अनूप सिंह की ही
देन हैं। हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं में राजस्थान भारती तथा वातायन जैसी
पत्रिकाओं ने भी बीकानेर का गौरव बढ़ाया
है । धर्मवीर भारती जिस तरह धर्मयुग का पर्याय बन गए थे ठीक उसी तरह हरीश
भादानी भी वातायन का पर्याय बन चुके थे। उन जैसे प्रगतिशील कवि का चला जाना
हिंदी साहित्य के लिए कम क्षति नहीं थी।
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बीकानेर में मेरा निवास ज्यादातर कोटगेट
से लगी दाऊजी रोड पर गोस्वामी चौक ही रहा। यहां मेरी ननिहाल भी है और ससुराल भी। चौक
के लोग बताते हैं कि बीकानेर की बसावट करते समय सामंतशाहों ने वहां अलग-अलग
जातियों और वर्गो को बसाने के लिए विशिष्ट स्थान प्रदान किए हुए थे और कुछ लोगों
ने स्वयं भी अपने सजाति वर्ग के बीच बसने का निर्णय ले लिया था। मोहता चौक, मूंधड़ों का चौक, तेलीबाड़ा, गोस्वामी चौक आचार्यो का मोहल्ला, रामपुरियों का मोहल्ला जैसे नाम इसी ओर संकेत करते है पर बीकानेर में अनेक
लोगों के रहने के बावजूद सांप्रदायिक सदभावना का माहौल हर समय बना रहा यह कोई कम
बड़ी बात नहीं है।
अपने गोस्वामी चौक की बात करूं तो मेरी
अपनी अनेक यादे हैं जो वहां से जुड़ी हुई हैं, हालांकि आज का गोस्वामी चौक अब पुराना वाला गोस्वामी चौक नहीं रहा पूरे
बीकानेर में फैली पाटा संस्कृति का चलन गोस्वामी चौक में भी बहुत समय तक रहा पर अब
नई पीढ़ी के साथ यह सब लुप्त हो गया है। मेहरावोंदार पत्थर की चैखटें और छोटी ऊंचाई
के दरवाजों वाले हवेलीनुमा मकानों की शक्ल-सूरत बदल गई है और मुख्य दरवाजों के आगे
लगे पत्थर के ही पाटे भी इक्के-दुक्के रह गए हैं।
विगत बीस-तीस वर्षो में बिखरी मेरी
स्मृतियां गोस्वामी चौक के जिन व्यक्तियों से जुड़ी हैं उनमें कार्टूनिस्ट पंकज
गोस्वामी, सुधीर तैलंग सुधीर गोस्वामी अनूप
गोस्वामी, संकेत गोस्वामी, लेखक-पत्रकार-कथाकार अशोक आत्रेय, प्रकाश परिमल, शशिकांत गोस्वामी, गोपी बल्लभ गोस्वामी, इंदूभूषण गोस्वामी, हमारे समय के प्रख्यात कवि और कलामर्मज्ञ हेमंत शेष, सभी शामिल हैं। इनमें से अनेक लोग वृत्ति के कारण अब या तो राजस्थान में
अन्यत्र बस गए हैं या कुछ दिवंगत हो चुके हैं। ये प्रतिभा संपन्न व्यक्ति भी
साहित्य सरोवर के खिलते श्वेत कमलों की भांति ही हैं।
गोस्वामी चौक की बात चली है तो यह कहना
अतिशयोक्ति नहीं होगा कि वह कार्टूनिस्टों का भी गढ़ रहा है। अपनी ओर से ज्यादा
कुछ न कह कर मैं विकीपीडिया से कुछ पंक्तियां यहां साभार प्रस्तुत करना चाहूंगा-
‘‘ एक ही शहर के एक ही मोहल्ले में पचासों कार्टूनिस्ट एक साथ सक्रिय हों यह बात
सुनने में अजीब तो है पर सच है। अकेले बीकानेर शहर के गोस्वामी चौक ने हिंदी पत्रकारिता
को शताधिक व्यंग्यकार दिए हैं जिनके व्यंग्यचित्र अक्सर समाचार पत्रों और पत्रिकाओं
के माध्यम से पाठकों का ध्यानाकर्षित करते आ रहे हैं। व्यंग्यचित्र-कला को विस्तार
देने में बीकानेर में अकेले दक्षिणात्य प्रवासी तैलंग समाज के कुछ व्यंग्य चित्रकारों
का हिंदी की व्यंग्यचित्र कला के विकास में अनूठा योगदान रहा है।
कार्टून के Xक्षेत्रों में पद्मश्री
सुधीर तैलंग, पंकज गोस्वामी, संकेत, सुधीर गोस्वामी ‘इंजी’, सुशील गोस्वामी, शंकर रामचंद्रराव तैलंग, अनूप गोस्वामी आदि कई कलाकार हैं जिन्होंने न केवल इस कला को परवान चढ़ाया
अपितु अपनी कला-साधाना से वैयक्तिक ख्याति भी अर्जित की। हिंदी क्रिकेट कमेंटेटर
प्रभात गोस्वामी के कार्टून भी लगभग एक दशक पूर्व विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में
प्रकाशित हुए हैं। इन दिनों राहुल गोस्वामी, अवनीश गोस्वामी, अलंकार गोस्वामी जैसे अनेक युवा व किशोर कलाकार लगभग अज्ञिप्त रह कर बतौर
अभिरुचि व्यंग्यचित्र के मैदान में तूलिका चला रहे हैं।
एक समय वह भी था जब संभवतः कार्टूनिस्ट पंकज गोस्वामी के प्रभाव और प्रेरणा से
व्यंग्यचित्रा कला को ले कर बीकानेर के प्रसिद्ध गोस्वामी चौक में एक तूफानी
उत्साह का दौर आ गया था, जब वहां का हर दूसरा तीसरा युवा व्यंग्यचित्र बनाता और छपवाता रहा था। इसी बात
से प्रभावित हो कर विनोद दुआ ने बीकानेर के गोस्वामी चौक में बनाए जा रहे कार्टून
और उनके कलाकारों पर केंद्रित एक रोचक वृत्तचित्र का निर्माण किया था.जिसका
प्रसारण दूरदर्शन के विभिन्न चैनलों पर हुआ था’’
गोस्वामी चौक से आगे चलें तो बीकानेर के
साहित्यिक क्षितिज पर यादवेन्द्र शर्मा चंद्र, नंदकिशोर आचार्य, मालचंद तिवाड़ी, हरदर्शन सहगल, बुलाकी शर्मा जैसे
नामीगिरामी लेखक-चिंतक भी हैं जिन्होंने राजस्थानी तथा हिंदी दोनों भाषाओं को अपनी
रचनाओं से समृद्ध किया है। इस बार की
यात्रा में हरदर्शन सहगल से मिलने उनके निवास के आस-पास पहुंचा तो पर मिलना संभव न
हुआ, सिर्फ़ फोन पर ही बात हो सकी। उनकी
आत्मकथा ‘डगर-डगर पर मगर’ ‘रचनाकार’ की वेबसाइट पर पढ़ चुका था। हरदर्शन लेखन के प्रति किस तरह समर्पित हैं इसकी
झलक उनके संस्मरण के इस अंश में बखूबी देखी जा सकती है -
‘‘... एक साहित्यिक कार्यक्रम में मुझे अध्यक्ष/मुख्यअ तिथि के रूप में बुलाया था और
जैसा कि होता है, एक करोड़पति को
भी। अभी हम मंच पर नहीं बैठे थे। उन्होंने बात-चीत शुरू कर दी- तो आप ही सहगल साहब
हैं। आप को लिखने का शौक कब शुरू हुआ। न जाने मुझे क्या हुआ। मैं चिढ़ गया। बोला
क्यों, यह शौक है ? उन्होंने जवाब में वही कहा-हां शौक ही तो होता है। अब की बार मेंने सहज होकर
पूछा- क्या आप शौकिया सांस लेते हैं। शौकिया खांसते हैं। शौकिया गुस्सा होते है।
अगर ‘हां तब मैं भी शौकिया लिखता हूं, वरना लेखन मेरे जीवन का अंग है। कई लोग मुझ से पूछते हैं कि आपने लिखना कब से
शुरू किया ? तो मेरा उत्तर
होता है- जब दो साल का था तभी से लिख रहा हूं।...’’
यादवेन्द्र शर्मा चंद्र तो बहुत पहले
चले गए पर उनकी एक दो आत्मीय स्मृतियां मेरे बीकानेर प्रवास में मुझे बार-बार
विचलित करती रहीं। चंद्र जी एक दो बार मेरे दिल्ली स्थित निवास पर आए थे और अपने
साहित्यिक संस्मरणों से हमें खूब समृद्ध करते रहे। इन संस्मरणों में उनके कुछ
प्रकाशकों की बेईमानियों का भी उल्लेख था। जहां तक मेरी स्मृति साथ देती है। तब
उनका कोई बेटा शायद शाहदरा के आसपास रहता था। चंद्रजी को ले कर मैं एक बार अपने
लेखक मित्रा डा.प्रकाश मनु के फरीदाबाद स्थित निवास पर गया था। योजना यह थी कि
चंद्रजी का एक लंबा साक्षात्कार लिया जाए और ऐसा हुआ भी। प्रकाश मनु ने मेरे साथ
चंद्रजी से लंबी बातचीत की। एहतियातन मैं एक टेपरिकार्डर अपने साथ ले गया था पर
दुर्घटना यह हुई कि जब बातचीत की जा रही थी तो पड़ोस में किसी शादी का शोर-शराबा
कुछ ज्यादा ही हो रहा था। दूसरे कहीं कुत्तों का भी वाक्युद्ध चल रहा था जिसके
चलते जब मैंने टेप को प्ले किया तो सिर पीट कर रह गया। वो तो भला हो प्रकाश मनु का
जिन्होंने इस पूरी अलिखित बातचीत को सिलसिलेवार अपनी स्मृति से समेटा। बाद में वह
साक्षात्कार मणिका मोहिनी द्वारा संपादित पत्रिाका ‘वैचारिकी संकलन’ में विस्तार से छपा।
चंद्रजी जिस तरह के जिंदादिल इंसान थे
वैसे बहुत ही कम लोग मुझे देखने को मिले। जब मिलते तो अपनी एक किताब अवश्य दे कर
जाते। अपने गुलाबड़ी उपन्यास, जिस पर अशोक चक्रधर ने टेलीफिल्म बनाई, और अपनी चर्चित कहानियों की प्रतियां उन्होंने बड़े ही स्नेह से मुझे दी थी। उनके पास गहन अनुभव थे, अनेक लेखकों के अनंत किस्से थे और लिखने की अपार ऊर्जा थी जो सभी को प्रेरित
करती थी हालांकि आलोचकों ने उनके लेखन को उस गंभीरता से नहीं लिया जैसी अपेक्षा की
जानी चाहिए।
हरदर्शन सहगल का अशोक आत्रेय से भी
घनिष्ठ संबंध रहा है और उन्होंने अपने संस्मरणों में भी इसका विस्तार से उल्लेख
किया है। एक अंश यहां प्रस्तुत कर रहा हूं - ‘‘अशोक ने गर्मजोशी से मुझसे हाथ मिलाया। और तत्काल मेरे साथ, अजय (अब्दुल गफूर ‘अजय’) ही की भांति, अग्रवाल क्वारर्टज वाले घर चल पड़ा। अजय वहीं रह गया। अजय ने मुझे अशोक के
बारे में बताया था कि बहुत शानियर है। सिर्फ नई भाषा नए शिल्प की दुहाई देकर कथ्य
विहीन कहानियों के दम पर अपने को बहुत बड़ा लेखक समझता है। - मगर फिर हाथों हाथ
छपता क्यों हैं ? मैंने अपने से पूछा। कुछ बात तो जरूर होगी, इस शख्स में। फिर एकदम से ऐसे मिल रहा है जैसा पुराना दोस्त हो। इससे जरूर
लेखन के संबंध में पता चलेगा।
अशोक घर पर पहुंचते ही, मुझसे मेरी कहानियां सुनने को लालायित दिखा। कहने लगा- आपकी शैली में कुछ खास
है। वाह एक ही वाक्य में तीन-तीन विचार। इसे तो मानना पड़ेगा। पर प्रस्तुतीकरण आज
की कहानी से जरा दूर पड़ता है। फिर कहने लगा- अजय वजय के चक्कर में मत पड़ना। ये
लोग पुरानी परिपाटी को घसीट रहे हैं। कहानियों के शीर्षकों को ही देख लो ‘बहन की भाभी’ ‘भाभी की बहन’ ‘ईमानदार दुकानदार’। फिर हंसने लगा। दूसरी बात उसने अजय वाली सी बताई थी कि यह लोग कोई
साहित्यकार नहीं है। साहित्य की राजनीति करते हैं। दरअसल ये साहित्यिक गुंडे हैं।
बाद में मैंने स्वयं देखा था कि अशोक ऐसे लोगों के मुंह पर उन्हें खरी-खरी सुना
आया करता था कि तुम काहे के लेखक हो। तुम जिस पत्रिाका @ अखबार में दो कोड़ी के लिए लगे हो अगर तुम में स्वाभिमान जैसी कोई चीज है तो
रिजाइन कर आए होते।
अशोक जैसे मेरा लंगोटिया यार हो
गया। हां थोड़ी शान मारने से बाज नहीं आता। मैं कहता इतनी शान मारना तो इसका
अधिकार होना चाहिए। जब कल्पना, माध्यम नई कहानियां जैसी पत्रिाकाओं में गल्पभारती कलकत्ता, रमेश बख्शी की आवेश जैसी पत्रिाकाओं में धड़ाधड़ छप रहा है तो इस नौजवान में
थोड़ी अकड़ तो आएगी ही ना। इस अकड़ को बर्दाश्त
करो। और इससे कुछ सीखो। वह उम्र में मुझ से कुछ कम था। वह मुझे तथा मेरी
पत्नी को बड़ा होने के नाते भी बहुत सम्मान देता। मैं कभी गाड़ी में जाता तो मेरा
सामान भी उठाने में जैसे गर्व करता। फिर अशोक के साथ कुछ और युवक भी मेरे यहां आने
लगे। जैसे शशिकांत गोस्वामी, पूर्णेन्दुे गोस्वामी। गोस्वामी की तो भरमार थी। गोस्वामी चौक में ही रहते थे।
इनके अतिरिक्त सूरज करेशा, प्रमोद आदि। यह अशोक आत्रेय का प्रभामंडल था। वह कुछ चेले चाले भी बनाए रखने
में विश्वास रखता था। उसके प्रशंसक भी शहर में काफी थे। खास तौर से उसके बड़े भाई
साहब प्रकाश परिमल। वे विद्वान कलावादी, नई से नई कथावस्तु के पक्षधर थे। ये सात भाई थे। असल में गोस्वामी थे। पर
तखल्लुस अलग-अलग। कोई ‘प्रखर‘ भी थे। कुछ भाई जयपुर आदि भी जा बसे थे। सभी गोस्वामी किसी न किसी कला के साधक
थे। शाम के समय गोस्वामी चौक में खासी गहमागहमी रहती थी। बीच में एक मंदिर है। कोई
मन्दिर जाकर गा रहा है। कोई पाटे पर बैठा सितार हारमोनियम बजा रहा है। धीरे धीरे
मेरे परिचय का दायरा बढ़ता चला गया। किंतु मैं ठहरा एक संकोची जीव। अपने को छोटा
नगण्य और दूसरों को बड़ा साथ ही विद्वान मानने वाला। खूब गोष्ठियां होतीं कभी यहां
तो कभी वहां। वहां पर, अगर, मेरी ड्यूटी आड़े नहीं आती, तो कुछ सीखने के उद्देश्य से अवश्य
पहुंचता। परन्तु अशोक आत्रेय वाला आत्मविश्वास कहां से लाऊं ? सो दुबक कर पीछे कहीं सबकी नजरों से खोया सा रहता।’’
अशोक आत्रेय ही क्या, इस बार मेरा मन तो बहुत लोगों से मिलने का था पर जैसा कि हरदर्शन सहगल ने भी
लिखा है, प्रकाश परिमल, अशोक आत्रेय, लक्ष्मण सौमित्र, हेमंत शेष, ये सभी अब जयपुर में बसे हुए हैं अस्तु
यह इच्छा बीकानेर की इस यात्रा में पूरी नहीं हुई। हां, शशिकांत गोस्वामी से अवश्य मुलाकात हुई। एक जमाना था जब शशिकांत गोस्वामी की
कहानियां सारिका में बडी सजधज के साथ छपती थीं और बीकानेर के युवा कथाकारों में
उनका नाम चर्चित हो गया था। कमलेश्वर ही नहीं, उन्हें अज्ञेय का भी सान्निध्य और स्नेह मिला। आजकल शशि गोस्वामी चौक में ही
रह रहे हैं। रेडियों-दूरदर्शन के लिए भी उन्होंने काफी लिखा पर लगता है अब उनका
लेखन थम सा गया है। काश यह प्रतिभावान कथाकार पहले की तरह आज भी सतत रचनारत रहता तो
हिंदी साहित्य को और भी बहुत कुछ श्रेष्ठ दे पाता। 000
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- रमेश तैलंग
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गुज़रा ज़माना : गर्भनाल से साभार