जिंदगी! जिंदगी! जिंदगी!
हड़बड़ी में कहाँ भागे री?
रात हो या की दिन, नींद तुझको नहीं,
काहे आठों पहर जागे री?
जिंदगी! जिंदगी! जिंदगी!
सिलसिला थम गया हर मुलाक़ात का,
काई-सा जम गया पानी ज़ज़्बात का,
खिलते चेहरों की मुस्कानें फीकी पडीं,
चाँद को ज्यों गहन लागे री.
जिंदगी! जिंदगी! जिंदगी!
लाखों बेचैनियाँ छोटी-सी जान को
क्या हुआ आज धरती के इंसान को
कांच के टुकड़े हैं नाम, शोहरत सभी,
काहे रब से इन्हें मांगे री?
जिंदगी! जिंदगी! जिंदगी!
रंग नकली ये जिस दिन उतर जायेंगे,
माला मोती के सारे बिखर जायेंगे,
कांपते हाथों में सिर्फ रह जायेंगे -
चंद टूटे हुए धागे री!
जिंदगी! जिंदगी! जिंदगी!
- रमेश तैलंग
(चित्र सौजन्य : google)