Friday, February 28, 2014

जुगलबंदी (कुछ दोहे कुछ गीत) 1 मार्च, 2014



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:: गीत ::

क्या कासी, क्या मथुरा, बरसाना!
मन रमे जहां, वहीं रम जाना.

सिर पर 
लादे-लादे सरदारी 
बहुत दिन
निभा ली दुनियादारी 
उलझता गया हर ताना-बाना.

चूर-चूर 
थकन से भरी पांखें 
देख-देख 
छलकती रहीं आंखें
भीगता रहा हर पल सिरहाना.

कब हुआ,  
वसंत सा वसंत लगा
जीवन भर
दुःख ही जीवंत लगा 
लौट-लौट खूंटे से बंध जाना. 

- रमेश तैलंग 




Thursday, February 27, 2014

जुगलबंदी (कुछ दोहे कुछ गीत) २८ फरवरी, २०१४



अगन में अगन
जल में जल मिल जइहै,
अगन में अगन प्यारे!
रोके से न रुकिहै,
करो सौ जतन प्यारे!

वाणी है संतन की
वेदन, पुरानन की.
का है जरूरत अब
भटकन, भटकावन की.

बंद द्वार खुल जइहैं
होई मुकत मन प्यारे!

परम शान्ति में एक दिन
होगी जब गति भंग
श्वेत-श्याम चादर यह
होगी सब एक रंग

माटी में माटी फिर
पवन में पवन प्यारे!



मन पत्थर का

एक पाट  बुद्धि का
एक पाट उदार का.
दोनों के बीच ह्रदय
धड़के बित्ता भर का.

भूख भुला दे सबको
अपना ईमान धरम.
और बुद्धि अहंकार-
का लहराए परचम.

डर है, न कर डाले
मन कहीं पत्थर का.

द्वन्द्व भरे जीवन की
अनदेखी गहराई
पार करे कैसे
कोई गहरी ये खाई

एक भरोसा है बाकी
बस अपने अंदर का.

बतियाँ बिसर गईं.

बतियाँ बिसर गईं
बूढ़े-पुरानों की
कितनी कहानियाँ कितने जमानों की.

आगत, अनागत,
संभव, असंभव को,
काल धराशायी
करता गया सबको,

गूंजें-अनुगूंजें भी
शक्तिहीनों की रहीं न रहीं शक्तिवानों की.

विस्मृति के दंश खा
स्मृति को मांजना
दुहकर हो गया, योग
दोहरा ये साधना

पाकर भी क्या होगा 
सपने वीरानों के, सुधियाँ वीरानों की. 

Wednesday, February 26, 2014

जुगलबंदी : ( कुछ दोहे कुछ गीत) 27 फरवरी, 2014


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तीन गीत


-1-
खुरदरे चरित्रों की
स्मृति-कथाएं तो होती हैं
पर उनके अभिनंदन-ग्रंथ नहीं होते हैं.

जानबूझ कर वे सीधी-सपाट
जिंदगी का रास्ता नहीं चुनते
झूठी प्रशस्तियों  के वास्ते
ताने-बाने प्रपंच के वे नहीं बुनते

उनके जीवन का बस
इतना-सा हासिल है
जितना पाते हैं उससे ज्यादा खोते हैं.

उनकी आँखों में जब भी देखो
हरा-भरा  जंगल ही दिखता है,
कितनी भी कडुवी वाणी बोलें
पर उसमें मंगल ही दिखता है

दुनियादारी में वे
भले मात खा जाएँ,
दुःख की हिस्सेदारी में आगे होते हैं.


-2-

कागज़ पर पानी की बूँद पड़े,
लिखा-पढ़ा सब कुछ धुल जाएगा,
बंधु रे, भूल नहीं जाना

कंधों पर जितना बोझा
हर दिन लादे तू  फिरता है,
और लडखडाते क़दमों से तू
चलते-चलते जैसे गिरता है,

बटमारों की बस्ती में,प्यारे!
पलक झपकते सब लुट जाएगा.
बंधु रे, भूल नहीं जाना.

स्मृति पर विस्मृति
देखो कैसे  डाल रही है  डेरा,
सिर पर का सूरज
ढलने को है संध्या ने आ घेरा,

अब ये पल-पल मारा-मारी क्यों,
हर सुख के पीछे दुःख आएगा..
बंधु रे, भूल नहीं जाना.

-3-


झूठी पड़ जाएंगीं सब भविष्यवाणियां
मेघों का अहंकार टूटेगा जिस पल भी 
धरती से अंकुर तो फूटेगे, फूटेंगे.

कैसी भी हो सर्जन की परंपरा
पूरी तरह न मरती है,
लचकदार बेल, तेज आंधी  की
धमकी से रोज कहाँ डरती है,

शब्द तो जटायु हैं,जब तक हैं शेष प्राण,  
वे अंतिम सांस तक जूझेंगे, जूझेंगे.

वे जो व्यापारी है, भाव-ताव
तय करते फिरते  हैं,
तिनकों जैसे  ऊपर चढ़ते हैं,
बूंदों जैसे नीचे  गिरते हैं

उनके भी चेहरों से उतरेगी हर नकाब
उनके भी मनसूबे डूबेंगे, डूबेंगे,


- रमेश तैलंग 

Tuesday, February 25, 2014

जुगलबंदी (कुछ दोहे कुछ गीत) 26 फरवरी, 2014

तीन चका की गाडि़या, खीच रहे दो पांव
घर आएं जब रोटियां,, भरे पेट को गांव

घास फूस की झोंपड़ी, सिर ऊपर तिरपाल 
उजड़-उजड़ हतभागिनी, रही सदा बेहाल

लरज -गरज बादर घिरे, बरसे राजनिवास 
सूनी आँखें मुंद गईं,  लिए अनबुझी प्यास

पसरा हो घर में जहां, सन्नाटे का जाल
किलकारी शिशु की करे मौनों को वाचाल


सब बस्ती बारूद की,, अम्बर बरसे आग 
हाड़-मांस जल भुन गए, बचे जंग के दाग

खेल-खिलौने छोड़कर, थामे है बन्दूक
बच्चे कठपुतली बने, देखे  दुनिया मूक 

दिवस बीतते मौन में, जागत-जाती रैन
दंश वक्त का खा गए, जब से बूढ़े नैन

फैलाकर बांहें दिया, जिनको खूब सनेह
उनकी किरपा पर पली, ढली उमर की देह

भरे कुटिलता मन करे, रोज नये छल-छंद 
अब वसंत में भी कहां, शुभता का मकरंद 

अर्थ नियंत्रित कर रहा, जीवन का व्यापार 
गिरवी रख दी जिन्दगी, जब भी बढ़ा उधार

जुगलबंदी (कुछ दोहे कुछ गीत)-25 फरवरी, 2014


मसि, कागद छूए बिना धन-धन हुए कबीर 
हम पोथी लिख-लिख मरे, फिर भी रहे फ़कीर

सागर को सब सौंप कर नदिया हुई विदेह 
दिया बुझे नर क्यूं करे वृथा धूम सों नेह.

रैन, दिवस खटती रहे, पल भर ना विसराम
सावन लागे जेठ में, जननी तुझे प्रनाम.

अपने दुःख पर्वत लगें, औरन के तृणमूल
जरे, मरे, मति बावरी, गाड़े उर में शूल

मिलें विरल सन्जोग से, सुजन सखा जग माहि 
नाव पडी मझधार में, डूबन देवें नाहि

सब गुन हैं प्रभु, आपके, हममें कहा शऊर
नैना होते आंधरे, दियो न होतो नूर

जब तक बसे न देह में, श्रमजल की  मधुवास 
धरे ना तब तक एक पग, जीवन में मधुमास

मारग पुरखन ने गढ़ो, हम तो बस रह्गीर
सुजस धरो सिर और को, हम काहे के मीर

जहां दीनजन की खबर, लेवत आवे लाज
ऐसे निठुर समाज मे, मीलों दूर सुराज  

धूर नीर से जा मिली करदी कीचमकीच 
धंसे पंक में पग हुई बुद्धि बावरी नीच