पिछले दिनों केंद्रीय साहित्य अकादमी में जबसे एक प्रतिष्ठित हिंदी साहित्यकार की अध्यक्ष पद पर नियुक्ति हुई है, न केवल हिंदी जगत की उनसे अपेक्षाएं बढ़ी हैं.बल्कि देश के बाल साहित्यकारों को भी एक नई आशा की किरण दिखी है. काफी समय से यह कोशिश की जा रही है कि वयस्क साहित्य की तरह बालसाहित्य की भी एक केंद्रीय अकादमी स्थापित हो पर इतना समय बीत गया, इस दिशा में कोई सार्थक कदम फलीभूत नहीं हुआ. अब कम से कम केंद्रीय साहित्य अकादमी इतना तो कर ही सकती है कि अपने संगठनात्मक ढांचे में एक स्वतंत्र बालसाहित्य प्रकोष्ठ की स्थापना करने के लिए पहल करे और उसके संचालन के लिए एक सक्षम कार्यकारी परिषद और समुचित राशि का भी प्रबंधन करे..
इस समय अंतर-राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य के संवर्द्धन तथा प्रकाशन पर शैक्षिक/सांस्कृतिक, प्रकाशन संस्थानों का ध्यान केंद्रित हो रहा है और यह समुचित अवसर है जब केंद्रीय साहित्य अकादमी को अपनी गतिविधियों का एक बड़ा हिस्सा श्रेष्ठ बाल साहित्य के लेखन, प्रकाशन, संवर्द्धन,तथा संचयन पर केंद्रित करने के लिए समुचित कदम उठाना चाहिए. यह इसलिए भी जरूरी है कि निजी स्तर पर जो प्रयास हो रहे हैं वे अनेक कारणों से या तो असफल हो रहे हैं या फिर वे लाभ की जगह हानि ही दर्शा रहे हैं.
बाल साहित्य जगत सरकारी संस्थानों की तरफ़ इसलिए भी मुंह जोहता है कि सरकार के पास अपेक्षित संसाधन मौजूद हैं. यह काम कारपोरेट जगत भी कर सकता है पर जैसा का सर्व विदित है वह शिक्षा को साहित्य की जगह तकनीकी से जोड़ना ज्यादा पसंद करता है. तकनीकी के प्रसार से भौतिक प्रगति तो हो सकती है पर श्रेष्ठ साहित्य जिस संवेदनशीलता को पोषित करता है वह कहां से आएगी? बच्चों का पुस्तकों से घना रिश्ता बने और उनके संवेदनशील मन को सही खुराक मिले इससे अच्छा काम और क्या हो सकता है. श्रेष्ठ बाल पुस्तकों के प्रसार और प्रकाशन में नेशनल बुक ट्रस्ट की भूमिका निस्संदेह अग्रणी है पर साहित्य अकादमी भी इस दिशा में अपना हाथ बढाए तो यह महत् कार्य अपनी गति पकड़ सकता है.
अकादमी हर वर्ष भारतीय भाषाओं के श्रेष्ठ बाल साहित्य पर पुरस्कार देने की योजना जारी रखे है, यह प्रशंसनीय है पर यदि नई पीढ़ी का साहित्य से घना रिश्ता बनाना है तो इस दिशा में और भी कारगर कदम उठाने की आवश्यकता है. साहित्य अकादमी द्वारा कुछ बाल साहित्य की पुस्तकों का प्रकाशन हुआ है पर उनमें ज्यादातर अनूदित अथवा रूपांतरित कृतियां है जबकि मौलिक कृतियों के प्रकाशन में अभी भी बहुत कुछ करने की जरूरत है.
अकादमी के पुस्तकालय में बाल साहित्य का हिस्सा बहुत ही कम है, लगभग न के बराबर. इसे विस्तार देने की आवश्यकता है. विदेशों में तो बाल साहित्य के क्षेत्र में भी ‘बुक्स इन प्रिंट’ जैसे साहित्यकोश उपलब्ध हैं जबकि भारत में इस तरह की पहल कहीं से भी नहीं हुई है. यदि इस दिशा में अकादमी जैसी प्रतिष्ठत संस्था कोई पहल करती है तो वह पूरे बाल साहित्यजगत के लिए गौरव का विषय होगा. निस्स्संदेह यह एक बड़ा कार्य है और इसमें धन, श्रम, समय और दृष्टि सभी की आवश्यकता होगी, पर बाल साहित्य के शोधकर्ताओं के लिए ऐसा कार्य एक बहुत बड़ा सहारा सिद्ध होगा.
चूंकि साहित्य अकादमी भारत सरकार के अधीन कार्यरत है इसलिए इस तरह का प्रस्ताव पारित करने के लिए उसे सदेच्छा के अलावा बहुत सी अन्य औपचारिकताएं पूरी करने के लिए प्रतिबद्ध होना पड़ेगा, पर यदि उसकी पहल पर ऐसा कोई भी कार्य संपन्न हुआ तो इससे अकादमी का गौरव ही बढ़ेगा.
जिस तरह हिंदी सप्ताह आते ही हिंदी भाषा का आलाप-प्रलाप शुरू हो जाता है उसी तरह बाल दिवस आते ही बाल-साहित्य की कतिपय कार्यशालाएं, संगोष्ठियां आयोजित कर ली जातीं है और फिर एक लंबा सन्नाटा फ़ैल जाता है. यह सचमुच दुखद स्थिति है. ज्ञातव्य है कि राष्ट्रीय बाल भवन में कभी बाल साहित्य के विविध विषयों को लेकर हर वर्ष अखिल भारतीय स्तर पर संगोष्ठियां आयोजित की जाती थीं पर अब वे भी बंद हो चुकी हैं. संभव हैं कि उनमें कुछ अनियमितताएं घटित हुई हों पर उनके परिष्कार की जगह विचार-विमर्श की राह को ही बंद कर देना कहां की समझदारी है?
- रमेश तैलंग
09211688748