Tuesday, October 25, 2011

इंसान चाहिए

कहने के लिए एक अदद जुबान चाहिए.
सुनने के लिए फिर दो अदद कान चाहिए.
ये गुफ्तगू करना कोई आसान नहीं है,
इसके लिए भी थोड़ा इत्मीनान चाहिए.
दो जून की रोटी नहीं ईमान से मिलती
धंधे के लिए उनको बेईमान चाहिए.
जनता का तो पता नहीं क्या चाहिए उसे
नेताओं को कमजोर संविधान चाहिए
तकलीफ हमारी जो हमारी तरह समझे,
भगवानों की दुनिया में एक इंसान चाहिए.

-रमेश तैलंग
२४/१०/२०११

Saturday, October 8, 2011

इक्कीसवीं सदी के कुछ चर्चित किशोर उपन्यास -रमेश तैलंग

इक्कीसवीं सदी के कुछ चर्चित किशोर उपन्यास
-रमेश तैलंग



इक्कीसवीं सदी में प्रकाशित किशोर उपन्यासों के परिदृश्य पर नजर डालें तो हमारी इस आस्था को बल ही मिलता हैं कि हिंदी के समकालीन बाल सहित्यकार न केवल इस लोकप्रिय विधा को निरंतर परिपुष्ट कर रहे हैं बल्कि उसमें नवीन प्रयोग भी कर रहे हैं.

जरा पीछे नजर डालें तो स्वतंत्रता के बाद जो आरंभिक किशोर उपन्यास आए उनमें इतिहास, विज्ञान, मनोविज्ञान, पर्यावरण, हास्य, रोमांच जैसे अनेक ‘जेनरों’ का उद्भव स्पष्टतः दिखाई दिया हालांकि उनमे कुछ ऐसे किशोर उपन्यास भी थे जिनके कथानक परंपरागत और उपदेशात्मक ढांचे से बंधे हुए थे पर धीरे-धीरे इस मिथक का जादू टूटता गया और इस विधा में कथ्य, भाषा, शिल्प और प्रयोग की दृष्टि से नई-नई संभावनाएं जगीं.

विविधता की दृष्टि से बीसवीं सदी का उत्तरार्द्ध काफी महवपूर्ण रहा. यही वह दौर था जिसमें सत्य प्रकाश अग्रवाल का एक डर पांच निडर, हिमांशु श्रीवास्तव का चंदा मामा दूर के, द्रोणवीर कोहली का करामाती कद्दू, हरिकृष्ण देवसरे का होटल का रहस्य, सुर्खाब के पर, देवेन्द्र कुमार का नानी मां का महल, वीर कुमार अधीर का बीस बरस की मौत, भगवत शरण उपाध्याय का सागर का घोडा, राजेश जैन का नकली चंद, योगेश गुप्त का रेडियो का सपना जैसे रोचक किशोर उपन्यास पाठकों के सामने आए.
जरा आगे चलें तो इस सूची में आप कुछ और भी नाम जोड़ सकते हैं हैं यथा -अमृतलाल नागर का अक्ल बड़ी या भैंस, बजरंगी स्मगलरों के फंदे में, भूप नारायण दीक्षित का बाल राज्य और नानी के घर में टन्टू देवेन्द्र कुमार का पेड़ नहीं कट रहे हैं , गीता पुष्प शा का आंगन-आंगन फूल खिले हैं, रमेश थानवी का घड़ियों की हड़ताल, भगवती शरण मिश्र का ही नागों के देश में, उषा यादव के लाखों में एक, नन्हा दधीचि, सोना की आंखें, पारस पत्थर, शकुंतला वर्मा का पांच जासूस, क्षमा शर्मा का मिट्ठू का घर, राजा बदल गया, होम वर्क, क्षितिज शर्मा का पामू का घर., प्रदीप पन्त का चंदू-नंदू की हैरानी वाली हरकतें, डॉक्टर श्रीप्रसाद का ‘अन्तू की आत्मकथा, ज़ाकिर अली रजनीश का हम होंगे कामयाब, रामनरेश उज्जवल का हांकू बाबा, रमाशंकर का मिशन इम्पोस्सिबल, मो. साजिद खां का गाँव की तस्वीर, शोभनाथ लाल का सीपियाणडेला की सैर, साबिर हुसैन का पापा की खोज, रोहिताश्व अस्थाना का एक था रमुआ, संजीव जायसवाल ‘संजय’ का पीली फ़ाइल, अखिलेश श्रीवास्तव “चमन” का बीनू का सपना आदि..आदि.
यही नहीं, मौलिक किशोर उपन्यासों के अतिरिक्त अन्य भाषाओँ से हिंदी में रूपांतरित कृतियां भी सामने आईं जिनमें मोगली के कारनामे,सोने की चक्की, आश्चर्यलोक में एलिस, फूलों की टोकरी, राजा और भिखारी, टाम काका कि कुटिया उल्लेखनीय थीं
पर ध्यान रहे कि ये सूची न तो सम्पूर्ण हैं और न ही अंतिम. इसमें अनेक और भी महत्त्व पूर्ण किशोर उपन्यासों की उपस्थिति होनी चाहिए जिन्होंने इक्कीसवीं सदी के किशोर उपन्यासों के लिए रचनात्मक पूर्व-पीठिका तैयार की. पर स्थानाभाव के कारण हम इसे यहीं विराम देकर अब सीधे वर्तमान सदी के कुछ महत्वपूर्ण किशोर उपन्यासों पर अपनी दृष्टि डालते हैं.
इस सदी के पहले दशक में जिन किशोर उपन्यासों ने पाठकों के बीच अपनी खास जगह बनाई, वे हैं चित्रा मुद्गल का माधवी कन्नगी, अमर गोस्वामी का शाबाश मुन्नू, हरि पाल त्यागी का ननकू का पाजामा , विनायक के नदिया और जंगल, चाची और चुनौतियां, चरखी का बेटा, नदी किनारे वाली चिड़िया, हरीश तिवारी का मैली मुम्बई के छोक्रालोग, देवेन्द्र कुमार के चिड़िया और चिमनी, एक छोटी बांसुरी, अधूरा सिंहासन, नीलकान, हरीकृष्ण देवसरे का www.घना जंगल.कॉम, प्रकाश मनु के गोलू भागा घर से, एक था ठुनठुनिया, और खुक्कन दादा का बचपन, क्षमा शर्मा के गोपू का कछुवा, नाहरसिंह के कारनामे, एक रात जंगल में ,घर और चिड़ियाघर, और हाल ही में प्रकाशित ‘भाई साहब’, हरदर्शन सहगल के छोटे कदम लंबी राहें, और मन की घंटियाँ , उषा यादव के सोना की आंखें, नाचे फिर जंगल में मोर्, फिर से हँसो धरती मां, कमला चमोला का जासूसों की जासूस,, लक्ष्मी खन्ना ‘सुमन’ का अजूबे, मोहम्मद साजिद खान का अल्लू, सूर्यनाथ सिंह का बिजली के खम्भों जैसे लोग, विष्णुप्रसाद चतुर्वेदी का अंतरिक्ष के लुटेरे, कामना सिंह के पानी है अनमोल और गुडियाघर , कमल चोपड़ा का मास्टरजी ने कहा , रमेश आज़ाद का सौ साल की नींद, कमलेश भट्ट कमल का ‘तुर्रम’, श्री निवास वत्स का गुल्लू और एक सतरंगी, राजीव सक्सेना का मैं ईशान. राजेश आहूजा का हैटट्रिक तथा प्रह्लाद श्रीमाली का पापा मुस्कराइये ना.
2011 में प्रकाशित जिन चंद किशोर उपन्यासों पर अभी मेरी नजर पहुँची हैं वे हैं : विनायक का पानी बरसने वाला है, प्रकाश मनु का पुम्पू और पुनपुन और संजीव जायसवाल “संजय” का ‘डूब हुआ किला’ जिसकी सूचना उन्होंने अभी-अभी मुझे दी है.
इनके अलावा डिजिटल फॉर्मेट में ओम प्रकाश कश्यप का एक रोचक किशोर उपन्यास ‘मिश्री का पहाड़’ भी उपलब्ध है जिसे गूगल सर्च के ज़रिये खोजकर पढ़ा जा सकता है.
जाहिर है कि इक्कीसवीं सदी किशोर उपन्यासों के लिए काफी उत्साहवर्धक रही है. चूंकि उपन्यासों की संख्या अधिक है और स्थान सीमा कम, इस लिए कुछ ही उपन्यासों की चर्चा मैं यहां विस्तार से कर पाऊंगा. यह मेरी सीमा भी है और विवशता भी. यदि किसी उपन्यास की चर्चा यहां कम हो पाई है या नहीं हो पाई है तो इसे मेरा स्मृति दोष ही समझा जाए न कि किसी तरह का पूर्वग्रह.

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विनायक इस सदी के पहले हिंदी बाल-लेखक हैं जिन्होंने किशोर उपन्यासों के माध्यम से वन्यजीवों के हिंसक एवं भयावने रूप के विपरीत उनके मानवीय एवं कारुणिक पक्ष को बड़ी ही संजीदगी से पाठकों के सामने रखा है. नदिया और जंगल में उन्होंने शेर, घड़ियाल तथा मृग शावकों की पारिवारिक कथा को अभिव्यक्ति दी थी तो चाची और चुनौतियां में उन्होंने एक चींटी की साहसिक यात्रा का वर्णन करते हुए समस्त वन प्राणियों के अस्तित्व के अंतिम समर की कथा कही. इस पूरे उपन्यास में विनायक की चुटीली कथा शैली का अद्भुत परिचय मिलता है जिसमे वे चींटी चाची के अडवेंचर, दुःख-सुख, फैशन, शौक, गुस्सैल तेवर, और छटपटाहट भरे क्षणों को आवश्यक ‘डिटेल्स’ के साथ कुशलता पूर्वक अभिव्यक्त करते हैं. यह दीगर बात है कि कहीं-कहीं उनके कहने का अंदाज हिंदी व्याकरण में पूरी तरह फिट नहीं बैठता.
उनका एक और नया किशोर उपन्यास चरखी का बेटा चरखी नाम की एक सियारन के उस बेटे की कथा है जो नाम का तो चतुरी है पर काम का मूर्ख. यानी उसकी बुद्धि इतनी सीमित है कि वह हाथ आए शिकार को भी ठीक से नहीं पकड़ पाता अपने अधिकतर प्रयासों में वह असफल होता है. यहां तक कि अलबेली लोमड़ी द्वारा रचे गए षड्यंत्र में फंस कर वह शेर के मुंह का ग्रास बनते-बनते रह जाता है. भला हो उस शेर का जो अलबेली लोमड़ी का षड्यंत्र समझ जाता है और चतुरी की न केवल जान बक्श देता है बल्कि उसमे आत्मविश्वास जगा कर उसे बुद्धिराजा का नाम देता है और अपनी मां के आदर्शों पर चलने के लिए प्रेरित करता है.
उपन्यास के अंत में जब यही शेर अपनी शेरनी से जुडी करुण कहानी चातुरी को सुनाता है और एक शूकर से युद्ध करने के बाद अपने आहत शरीर को त्यागने से पूर्व चतुरी से कहता है –‘बुद्धिराजा, तुम आ गए बहुत अच्छा हुआ....मैं सोच रहा था ऐसा न हो, जब जंगल का अंतिम सिंह विदा ले रहा हो तो उस समय उसके पास बुद्धिराजा न हों...बुद्धिराजा, मेरी दो बातें पूरी कर देना. कल जब बच्चों को सिंह की बहादुरी के ढेरों किस्से सुनाना तो यह भी बताना न भूलना कि सिंह जंगल का राजा नहीं, रक्षक हुआ करता था....और मेरे मरने के पश्चात मेरी खाल कुतर देना जिससे मनुष्य के हाथ में न पड़े.....’ तो हमारी आंखें अनायास सजल होने लगती हैं. विनायक की यही संवेदना पाठकों को गहरे तक छूती है.

हाल में विनायक के दो और किशोर उपन्यास इधर आए हैं – नदी किनारे वाली चिड़िया और पानी बरसने वाला है. नदी किनारे वाली चिड़िया में जहां एक नटखट चिड़िया की शारार्तों से भरी कथा है तो पानी बरसने वाला है उपन्यास की कथा के केंद्र में हैं एक रीछ और रीछनी जिनके दाम्पत्य का सजीव चित्रण, उनके परिवार में दो नव प्रसूत जाम्वंतों का आगमन, जंगल के राजा शेर और शेरनी का रीछ दम्पति के प्रति अगाध स्नेह , उनके विनोदपूर्ण संवाद, और जंगल का राजा होते हुए भी अपनी असुरक्षा का सतत चिंता-भाव पूरे उपन्यास से पाठक को बांधे रहता है.

हमारे समय के प्रख्यात बाल-कथाकार डॉक्टर हरिकृष्ण देवसरे अपने लेखन में शुरू से ही वैज्ञानिक सोच को प्रमुखता देते रहे हैं. उड़नतश्तरियां, डॉक्टर बोमा की डायरी जैसे बेहतरीन वैज्ञानिक उपन्यासों से वे पहले ही चर्चित हो चुके हैं. इस दशक में आया उनका किशोर उपन्यास www. घना जंगल.कॉम, इस दिशा में एक और महत्वपूर्ण पहल है. इस किशोर उपन्यास के पात्र पशु-पक्षी होते हुए भी इंसानों जैसे क्रियाकलाप करते हुए सूचना प्रौद्योगिकी के विभिन्न उपकरण जैसे कम्पूटर, इन्टरनेट, वेबसाईट, मोबाइल, लैपटॉप, वीडियो-सेटेलाईट कांफ्रेंसिंग आदि का इस्तेमाल करते हैं. इस किशोर उपन्यास में ये सब बातें इतनी सहज रूप में आती हैं कि बच्चे उनसे स्वाभाविक जुड़ाव महसूस करने लगते हैं .यही बात इस किशोर उपन्यास को बेहद रोचक और पठनीय बनाती है.
मुझे याद है कि एक बार वरिष्ठ बाल कथाकार देवेन्द्र कुमार ने पिछले दिनों अपने एक लेख में झोपड-पट्टियों में रहने वाला या निचले तबके के पात्रों की बाल साहित्य में अनुपस्थिति पर चिंता व्यक्त की थी. इस दिशा में हरीश तिवारी का किशोर उपन्यास मैली मुंबई के छोक्रा लोग एक नई पहल के रूप में देखा जा सकता है. इस उपन्यास में लेखक ने मुंबई जैसी महानगरी की एक गंदी-मैली बस्ती, जो केवल नाम के सुंदर नगरी है, में पैदा हुए पुण्डी की कथा कही है. पुण्डी सात साल का बच्चा है जिसकी मां लीला, मेहता सेठ के घर पर कामवाली बाई के रूप में काम करती है और पुण्डी, मेहता परिवार के बच्चों, विकी और पिंकी को स्कूल पहुँचाने तथा उनके बस्तों को अपने कंधे पर धोने का काम करताहै. पुण्डी खुद पढ़ना चाहता है पर उसकी गरीबी और उसकी मैली बस्ती का वातावरण इसमें बाधक है. पुण्डी के इस सपने को साकार करने में उसके मित्र सखा, गनपत, सेनानी अंकल, पुष्प, भीमाबाई और मेहता सेठ की लड़की पिंकी, जैसे पात्र अहम भूमिका निभाते हैं. पुण्डी एस.एस.सी की परीक्षा में पूरे राज्य में प्रथम आता है और जब पिंकी ‘कौन बनेगा करोड़पति’ बनवाने में सहायता भी करता है तो पुण्डी पढ़-लिख कर अब अपनी मैली बस्ती सुंदर नागर को गरीबी और अशिक्षा से मुक्त करने का संकल्प लेताहै. इस कार्य में पिंकी भी अपनी एक करोड की जीती हुई धन राशि खर्च करने का वायदा करती है. जाहिर है कि उपन्यास का यह चमत्कारिक सुखांत यथार्थ की जमीन पर बुनी गई पूरी कथा को कहीं न कहीं कमजोर भी बना देता है. लेकिन इसके बावजूद मैली मुंबई के छोक्रालोग को हाल के वर्षों के यादगार किशोर उपन्यासों में शुमार किया जा सकता है.
पेड़ नहीं कट रहे हैं एवं चिड़िया और चिमनी जैसे प्रयोगात्मक किशोर उपन्यासों द्वारा अपनी अलग पहचान बनाने वाले देवेन्द्र कुमार के नए किशोर उपन्यास एक छोटी बांसुरी में अमर नाम के एक ऐसे बालक की कथा है जिसका फौजी पिता मोर्चे से लापता हो गया है. पिता के बारे में मां के संतोषजनक उत्तर न पाने के बाद अमर स्वयं उनकी खोज में चुपचाप घर से निकल पड़ता है. अपनी भटकन भरी इस यात्रा में उसकी अनेक लोगों से मुलाकात होती है जीने बांसुरी बाबा, रोहू, डाक्टर रैजादा उनकी पत्नी अचला आदि शामिल है. बांसुरी बाबा, अमर को झूठा दिलासा देते रहते हैं कि वे उसके पिता का पता जानते हैं और उन्होंने उनको देखा भी है. पर एक दिन जब बासुरी बाबा अपने जीवन की अंतिम सांस ले रहे होते हैं तो वे अमर को सच बता देते हैं कि वे न ही उसके पिता को जानते हैं और न हे उन्होंने उनको देखा है. बांसुरी बाबा के जाने के बाद डाक्टर रायजादा की मदद से अमर वापस अपनी मां के पास पहुँचता है और एक सुखी जीवन की शुरुआत करताहै. इस उपन्यास को पढकर एक बार फिर प्रमाणित हो जाता है कि देवेन्द्र कुमार बच्चों की कोमलतम भावनाओं को पकड़ने में जितने सिद्धहस्त हैं उतने ही सिद्धहस्त वे कथा की रोचकता बनाए रखने में भी है.
एक छोटी बांसुरी के अलावा देवेन्द्र कुमार के दो और रोचक किशोर उपन्यास आए हैं – अधूरा सिंहासन और नीलकान. जहां अधूरा सिंहासन अपनी रहस्यात्मक कथा वस्तु और पर्यावरण की चिंता से जुड कर एक नई पहचान बनाता है वहीँ नीलकान हलकी-फुलकी कथा शैली में पाठकों का भरपूर मनोरंजन करता है.

अक्सर देखा गया है कि पढ़ाई के डर से या गरीबी अथवा पारिवारिक प्रताडना की वजह से बच्चे कच्ची उम्र में घर छोड़ कर भाग जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप या तो वे शहरों और महानगरों के ढाबों या कोठियों में छोटू बन कर गलीज जिंदगी गुजरते है या फिर जाना-अनजाने अपराध की अँधेरी दुनिया में बसेरा ले लेतेहैं. प्रकाश मनु का किशोर उपन्यास गोलू भागा घर से ऐसी ही समस्या को अपनी कथा का केंद्र बिंदु बनाता है. उपन्यास का मुख्य पात्र गोलू है जो अन्य विषयों, खासकर साहित्यिक पुस्तकों के मामले में तो बेहद पढाकू है पर गणित का विषय उसे भूत की तरह डरता है. इस कमजोरी के लिए उसे स्कूल और घर दोनों जगह बार-बार अपमानित होना पड़ता है और एक दिन इसी बात पर पिता के चांटे से आहात हो कर वह घर से भाग जाता है. फिर उसे कहां-कहां संघर्ष करना पड़ता है और कितनी-कितनी तकलीफें सहनी पड़ती है, इस उपन्यास पढकर ही जाना जा सकता है.

मनु के दूसरे किशोर उपन्यास एक था ठुनठुनिया को सरसरी तौर पर देखें तो इसमें एक पितृहीन पांच साल के बच्चे की साधारण-सी कथा है जो अपनी चंचलता और विनोदप्रियता से अपनी मां के साथ-साथ पूरे गांव वा लों का प्रिय बन जाता है और किशोरावस्था तक पहुंचते - पहुंचते अपनी सूझ-बूझ, कला-प्रवीणता और मेहनत से एक दिन अपनी मां का सहारा बनकर सफलता की ऊँचाइयाँ हासिल करता है। पर इस साधारण-सी दिखने वाली कथा में कई असाधारण बिंदु गुंफित हैं।

मसलन, पहला बिंदु तो ठुनठुनिया की मां के ममता भरे उस सपने से जुड़ा है जिसमें वह ठुनठुनिया के बड़े तथा सक्षम होने पर परिवार के भरण-पोषण की समस्या का निदान खोज रही है। दूसरा बिंदु, ठुनठुनिया की मां के मन में पल रहे उस अज्ञात डर का है जो उसे सदैव इस आशंका से आतंकित किए रहता है कि उसका इकलोता बेटा और एकमात्र सहारा ठुनठुनिया अगर किसी कारणवश उससे दूर चला गया तो उसका क्या होगा। तीसरा बिंदु शैशव और किशोरावस्था के बीच झूलते ठुनठुनिया के उस निश्छल, विनोदप्रिय एवं निर्भीक स्वभाव का है जिसके तहत वह अपने गाँव गुलजारपुर के भारीभरकम सेहत वाले जमींदार गजराज बाबू को हाथी पर सवार देखकर विनोद करता है
स्कूली शिक्षा से विचलन और कम से कम समय में येन-केन प्रकारेण ज्यादा पैसा कमा लेने की चाह अंकुरण के बाद पल्लवित होती आज की नई पीढ़ी को किस तरह उनके सही लक्ष्‍य तथा अपने प्रियजनों से दूर भटका रही है इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण ठुनठुनिया के चरित्र में देखने को मिलता है। एक था ठुनठुनिया की एक प्रमुख विशेषता है प्रकाश मनु की बाल-सुलभ चुलबुली भाषा और कथा कहने का खिलंदड़ा अंदाज जो उन्हें कथा लेखक से कहीं ज्यादा कुशल कथावाचक के रूप में स्थापित करते हैं।

फ्लैशबैक शैली में प्रकाश मनु का एक खिलंदड़ा और गुदगुदी करता किशोर उपन्यास है – खुक्कन दादा का बचपन जिसमे खुलजा सिमसिम के अंदाज में एक कहानी के बाद दूसरी कहानी का दरवाजा खुलता जाता है. यहाँ खुक्कन दादा के बचपन की मीठी-मीठी यादें और उन यादों से जुडी वह हर चीज है जो जाने-अनजाने बच्चों की जिंदगी का अनायास हिस्सा बन जाती है. फिर चाहे वह चार रंग के दस्ताने हों या नीली गेंद या गुलाबी पतंग, कंचे हों या लट्टू या तोता, या मोर, खरगोश हो या मीठी-मेथी टाफियां...सबकी अलग-अलग कहानी और साथ में उस सीकियाँ अध्कू की भी मार्मिक कहानी जो अपने चातुर्य से छः बड़े भाइयों की ज्यादतियां भुलाकर उन्हें राज्याश्रय दिलाता है. उम्र के विपरीत छोरों पर खड़ी दो पीढ़ियों के बीच अनूठा संवाद रचती कुछ चुलबुली यादों की बुनियाद पर खड़ा खुक्कन दादा का बचपन.
२०११ में मनु का प्रकाशन विभाग, नई दिल्ली से प्रकाशित एक और नया किशोर उपन्यास पुम्पु और पुनपुन भी आया है जो बच्चों का सम्पूर्ण संसार आंखों के सामने रख देता है.

सुपरिचित लेखिका क्षमा शर्मा के किशोर उपन्यास भाई साहब की बात करें तो पचासी पृष्ठों में सिमटा यह उपन्यास फ्लैश बैक में इतनी आत्मीयता के साथ लिखा गया है कि देखते ही बंटा है. शुरूआती तीन-चार प्रष्टों के बाद पता चलता है कि रमेश भाई साहब, जिनका परिवार में बहुत सम्मान है, बचपन में ही पोलियोग्रस्त हो गए थे. बैसाखियों के सहारे संघर्षपूर्ण जिंदगी जीते हुए वे न केवल स्वयं ऊंचाइयों तक पहुँचते हैं बल्कि अपने छोटे भाई-बहनों (सुरेश, उर्मी और लेखिका) को भी भरपूर प्यार और प्रोत्साहन देते हैं. एक ऐसा इंसान जो परिवार में सभी बच्चों के लिए रोल मॉडल रहा हो, लंबे अरसे के बाद जब मिलने के लिए घर आता है तो उसके परिजन किस तरह उल्लसित और भावविभोर हो जाते हैं, इस सिर्फ अनुभव किया जा सकता है. जैसा सजीव पारिवारिक चित्रण और गहन आत्मीय भाव यहाँ मौजूद है, वैसा अन्यत्र शायद ही दिखा हों.
अब चलिए रहस्य, रोमांच और विज्ञान फंतासी की ओर. इस श्रेणी में दो उल्लेखनीय उपन्यासों के नाम हैं –सूर्यनाथ सिंह का बिजली के खम्भों जैसे लोग और विष्णुप्रसाद चतुर्वेदी का अंतरिक्ष के लुटेरे.
बिजली के खम्भों जैसे लोग में सूर्यनाथ सिंह ने एक रोचक कथा को बुना है. इक्कीस दिनों के अभूतपूर्व अभियान के बाद अंतरिक्षयान डिस्कवरी जब धरती पर वापस आकर उतरता है तो उसके चालक दल का, जिसके मुखिया हैं भारतीय मूल के रामास्वामी , दिल खोलकर गडगडाती तालियों के साथ स्वागत होता है. डिस्कवरी अभियान का मुख्य उद्येश्य दूसरे ग्रहों पर जीवन और प्राणियों की संभावना का पता लगाना है. रामास्वामी जब अपने सहयोगियों के साथ स्पेस सेण्टर में डिस्कवरी द्वारा एकत्रित किए गए तथ्यों का आकलन कर रहे होते हैं तो उनके साथ उनका बेटा गुरु भी होता है. तभी उन्हें पता चलता है कि कोई उनके कम्प्यूटर्स से डाटा चुरा रहा है. वे इस अनधिकृत चोरी की समस्या से जूझ ही रहे होते हैं कि उनका बेटा गुरु, स्पेस सेंटर से गायब हो जाता है. उधर गुरु को जब होश आता है तो वह अपने को एक अजनबी गृह में अनजान लोगों के बीच पाता. लोग भी कैसे? बिजली के खम्भों जैसे...लंबे. अजनबी गृह की अनोखी बातें. बैटन ही बातों में गुरु को पता चलता है कि उसे बिजली के खम्भों जैसे लंबे लोगों ने एलेक्त्रोमेग्नेतिक फ्लक्स यानि विद्युत चुम्बकीय पुंज में परिवर्तित करके गायब कर दिया था. पहले तो गुरु को अजनबी गृह के लोग संदेह की दृष्टि से देखते हैं पर जब उन्हें भरोसा हो जाता है कि डिस्कवरी नामक ऑब्जेक्ट उन्हें नुक्सान पहुँचाने के लिए नहीं था तो वे गुरु को बड़े ही प्यार से कुछ दिनों तक अपने गृह पर रखते हैं और आसपास की सैर करने के बाद उड़न तश्तरी के ज़रिये वापस धरती पर भेजने की व्यवस्था कर देते हैं.

विज्ञान फंतासी पर ही आधारित विष्णु प्रसाद चतुर्वेदी के उपन्यास अंतरिक्ष के लुटेरे के केंद्र में युवा वैज्ञानिक मयूर और प्रोफ़ेसर जयंत हैं जो अन्य सहयोगियों के साथ निजी अंतरिक्षयान गरुड़-१ और गरुड़-२ में बैठकर अंतरिक्ष की यात्रा करते हैं. उनका उद्येश्य जहां एक ओर पश्चिमी देशों के उस षड्यंत्र का पर्दाफाश करना है जिसके तहत वे सौर मंडल के क्षुद्रग्रहों पर कब्ज़ा करके वहां की खनिज सम्पदा लूटना चाहते हैं तो दूसरी ओर अपने देश के लिए ऐसी जानकारी तथा प्रमाण इकट्ठे करना है जिनसे भारत की गरीबी दूर करने में सहायता मिल सके. कहानी ज्यों-ज्यों आगे बढ़ती है त्यों-त्यों पाठक की रूचि भी बढती जाती है. और अंत में जाकर पता चलता है कि सिर्फ धरती पर हे विकसित सभ्यता वाले प्राणी नहीं हैं वरन दूसरे ग्रहों पर भी हैं जो कई मायने में तो धरती के प्राणियों से भी ज्यादा श्री-सम्पदा और बुद्धि संपन्न हैं.

समस्यामूलक बाल उपन्यासों में कामना सिंह रचित पानी है अनमोल जल संरक्षण के महत्त्व को रेखांकित करता है. इसमें उपन्यास का केंद्रीय पात्र शुभम अपने दादाजी द्वारा तालाब की जमीन पर शापिंग माल खड़े करने का विरोध करता है. उसकी दृष्टि में बोतलों में बंद मिनरल वाटर प्राकृतिक जल का विकल्प नहीं हो सकता और थोड़े से व्यापारिक मुनाफे के लिए प्राकृतिक जलस्रोतों को नष्ट करते चले जाना भी किसी अपराध से कम नहीं. इस उपन्यास की पूरी कथा इसी सन्देश के आसपास घूमती है. कामना सिंह का हाल में एक और रोचक किशोर उपन्यास आया है – गुडियाघर जिसे रूचि के साथ पढ़ा जा सकता है..
कमल चोपडा का किशोर उपन्यास मास्टरजी ने कहा था ‘किन्नू नाम के लड़के कि कहानी है जो न केवल अपनी शैतानियों से दूसरों को परेशान करता है बल्कि अपने अध्यापक का भी हर तरह से अपमान करता है. लेकिन जब इसी किन्नू का बुरा वक्त आता है और उसका घरबार आग में जल कर भस्म होजाता है तो उसकी जिंदगी ही बदल जाती है. अंत में वह किस तरह संघर्ष करते हुए एक शिक्षित और जिम्मेदार लड़का बन जाता है, इसकी रोचक कथा लेखक ने बड़ी ही कुशलता से लिखी है.
श्री निवास वत्स एक सक्षम बाल/किशोर कथाकार है और काफी समय सा बाल साहित्य सृजन में सक्रिय है. मां का सपना के बाद गुल्लू और एक सतरंगी उनक नया किशोर उपन्यास है जिसका मुख्य पात्र यूं तो गुल्लू नाम का बालक है पर उपन्यास की पूरी कथा और घटनाएं सतरंगी नाम के एक अद्भुत पक्षी के चारों ओर घूमती हैं. यह पक्षी मनुष्य की भाषा समझ और बोल सकता है इसीलिये गुल्लू और एक सतरंगी की युगल कथा पाठकों को अंत तक बांधे रखती है. १५९ पृष्ठों में फैले इस उपन्यास के अभी पहला खंड ही प्रकाशित हुआ है जो आगे जारी रहेगा. देखना यह है कि आगे के खंड एक श्रृंखला के रूप में कितने लोकप्रिय होते हैं. वैसे लेखक ने इसे किसी भारतीय भाषा में लिखा गया प्रथम वृहद बाल एवं किशोरोपयोगी उपन्यास माना है.
प्रदीप पन्त का किशोर उपन्यास चंदू-नंदू की हैरानी वाली हरकतें चंद्रप्रकाश और नन्दप्रकाश जैसे पात्रों के रूप में हम सभी को अपने बचपन के उस दुनिया में ले जाता है जहां पिताजी के कोट की जेब से चुराए गए पैसे का रोमांच, चोरी-चोरी सिनेमा देखने का मजा और झूठ को सच बनाने की कीमियागिरी सभी कुछ मौजूद है.
हरदर्शन सहगल के दो किशोर उपन्यास मन की घंटियाँ और छोटे कदम लंबी राहें बाल शोषण, और बच्चों के प्रति बड़ों के व्यवहार की मनोवैज्ञानिक परतें खोलने वाली कृतियाँ हैं.
राजेश आहूजा और प्रह्लाद श्रीमाली दोनों का ही नाम किशोर उपन्यासकारों में नया है पर उनके पहले ही उपन्यास क्रमशः ‘हैटट्रिक’ और ‘पापा मुस्कराइए ना’ आर्य स्मृति पुरस्कार से सम्मानित हुए हैं. ‘हैटट्रिक’’ एक किशोर के क्रिकेट प्रेम और उसके बड़ा खिलाडी बनने के सपने को सच साबित करने की अद्भुत कथा है तो ‘पापा मुस्कराइये ना’ अपने क्रूर पिता से प्रताड़ित एक किशोर के मानसिक ऊहापोह की मनोवैज्ञानिक कथा है. हालांकि इस उपन्यास पर डॉक्टर हरि कृष्ण देवसरे तथा अन्य आलोचकों के प्रतिक्रिया थी कि यह किशोर उपन्यास किशोर पर लिखा गया बड़ों का उपन्यास है.
मैं ईशान राजीव सक्सेना का प्रयोगात्मक किशोर उपन्यास है. उपन्यास क्या है, ईशान नाम के एक किशोर की आत्मकथा है जिसमे उसी की जुबानी उसकी शैतानियाँ बखानी गईं है.
इन बड़े उपन्यासों के बीच कुछ लघु आकार के किशोर उपन्यास भी है साहसी भोला जिसे कुसुम गुप्ता ने लिखा है, भोला नामक लड़के के साहसी कारनामों की कहानी है तो क्षमा शर्मा का ‘एक रात जंगल में’ एक हथिनी के बच्चे की, जो अचानक कुँए में गिर जाता है, और जिसे ललुआ नाम का लड़का बचाता है.
इस तरह सार रूप में देखा जाए तो आधुनिक रचनाकारों ने अपने किशोर उपन्यासों के लिए नई से नई जमीन तलाशी है और विविध विषयों को अपनी कथावस्तु का केंद्र बनाते हुए शिल्प की नई बानगियां प्रस्तुत की हैं, जो एक शुभ संकेत है.
इक्कीसवीं सदी का अभी एक ही दशक ही बीता है और रचनाकारों के लिए काफी बड़ा आसमान पड़ा है उड़ान भरने के लिए.... दूसरे, बच्चों और खासकर किशोरों की दुनिया काफी तेजी से बदल रही है और हम जैसे रचनाकारों के लिए यह एक चुनौती है कि हम किशोरों की दुनिया में बिना किसी पूर्वग्रह के खुली दृष्टि से झांके और उनकी कथा-व्यथा, उनकी खुशियों, उनके सपनों और उनके बुलंद इरादों को एक सकारात्मक सन्देश के साथ अभिव्यक्ति दें.



रमेश तैलंग
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बालवाटिका सम्मान समारोह २०११ भीलवाडा में पढ़ा गया संक्षिप्त आलेख.