Wednesday, May 3, 2023

मधुमती 2013 बालसाहित्य विशेषांक से आभार :

हिन्दी बालसाहित्य के पुरोधा

रमेश तैलंग


’पुरोधा‘ शब्द को यदि आप सीमित अर्थ (पुरोहित) में न लें तो इस श्रेणी में मैं उन्नीसवीं शताब्दी के मध्यकाल से लेकर स्वतंत्रताप्राप्तिकाल तक के उन सभी मूर्धन्य हिंदी रचनाकारों को शामिल करना चाहूंगा जिन्होंने आधुनिक हिंदी बालसाहित्य की सही मायने में नींव रखी और उसे पुख्ता करने में अपना अप्रतिम योगदान दिया, ऐसे सिरमौर रचनाकारों में एक और तो वे हैं जिन्होंने बालसाहित्य सृजन के बल पर ही अपनी महती पहचान बनाई और दूसरी और वे हैं जिन्होंने वयस्क साहित्य के साथ-सथ बालसाहित्य का भी पर्याप्त मात्रा में सृजन किया।
इनमें बहुत से ऐसे शीर्ष रचनाकार आज हमारे बीच नहीं हैं पर जो वर्तमान में हैं वे न केवल अपनी रचनाओं से बालसाहित्य की निरंतर श्रीवृद्धि कर रहे हैं, बल्कि प्रकाश स्तंभ की तरह नए बालसाहित्यकारों का मार्ग भी आलोकित कर रहे हैं।
विगत काल पर दृष्टि डालें तो ज्ञात होगा कि लोक की वाचिक परंपरा को आत्मसात् करती हुई हिंदी बालसाहित्य की आरंभिक धारा को बाल कविता के जरिये ही अपेक्षित विस्तार मिला जिसकी स्पष्ट झलक उन्नीसवीं शताब्दी के उतरार्द्ध और बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध काल से ही देखने को मिल जाती है।
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति काल तक जन्मे जिन पुरोधा रचनाकारों ने हिंदी बाल साहित्य को पुष्पित-पल्लवित होने के लिए शुरू से ही एक सुदृढ आधार प्रदान किया, उनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण नाम अलग-अलग कालखंडानुसार इस प्रकार हैं-
प्रारंभिक दो दशक (१८६०-१८८०)
दो दशक के इस कालखंड में पं. श्रीधर पाठक (१८६०-१९२८ जोंधरी, आगरा ः प्रमुख कृतियां ः ’बाल-भूगोल‘, ’भारतगीत‘, ’मनोविनोद‘), पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी (१८६४-१९३८, दौलतपुर-रायबरेली ः प्रमुख कृतियां ः ’बालविनोद‘), बाल मकुन्द गुप्त, (१८६७-१९०७ ः प्रमुख कृतियां ः ’खेल तमाशा‘, ’खिलौना‘), अयोध्यासिंह उपाध्याय ’हरिऔध‘ (१८६७-१९४७, निजामाबाद, आजमगढ ः प्रमुख कृतियां ः ’बाल-विभव‘, ’बाल-विलास‘, ’फूल पत्ते‘, ’चन्द्र खिलौना‘, ’खेल तमाशा‘, ’उपदेश-कुसुम‘, ’बाल-गीतावली‘, ’चांद-सितारे‘, ’पद्य-प्रसून‘), कामता प्रसाद गुरु (१८७५-१९४७, परकोटा, सागर ः प्रमुख कृतियां ः ’सुदर्शन‘, ’पद्म पुष्पावली‘), दामोदार सहाय ’कविकिंकर‘ (१८७५-१९३२, शीतलपुर, छपरा - बिहार ः प्रमुख कृतियां ः ’रसाल‘, ’अंगूर‘, ’सुधा सरोवर‘, ’सरल सितारी‘, ’बाल सितारी‘), पं सुदर्शनाचार्य (१८७९), के नाम उल्लेखनीय हैं।
इस कालखण्ड में, जिसे आधुनिक हिंदी बाल साहित्य का उत्सकाल भी कहा जाता है. पं. श्रीधर पाठक,, बाल मुकुन्द गुप्त, अयोध्यासिंह उपाध्याय ’हरिऔध‘ की एक ऐसी कवि-त्रयी नजर आती है जिसने शुरू से ही एक-से-एक बेहतर बाल कविताएं रचकर आगामी रचनाकारों के सामने एक बहुत बडी लकीर खींच दी, यही नहीं, इन तीनों कवियों के बीच हिंदी का पहला बालकवि सिद्ध करने की एक तथाकथित होड भी आलोचकों के बीच लग गई- सब जानते हैं कि पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपादन में प्रकाशित होने वाली तत्कालीन पत्रिका ’सरस्वती‘ बाल-पत्रिका नहीं थी पर द्विवेदी जी ने उस पत्रिका में सन् १९०६ में मैथिली शरण गुप्त की एक बालोपयोगी कविता ’ओला‘ को प्रकाशित कर एक नई परंपरा का सूत्रपात किया। प्रकाशन की दृष्टि से देखा जाए तो बालमुकुन्द गुप्त रचित ’खिलौना‘ पुस्तक की बाल कविताएं, खास तौर पर ’गिलहरी का ब्याह‘, पं. श्रीधर पाठक की बालकविताओं से पहले प्रकाशित हो चुकी थी और उनकी समालोचना भी हो चुकी थी, इस बिना पर गुप्त जी को हिंदी का पहला बालकवि ठहराने का औचित्य गलत नहीं लगता पर दूसरी ओर अयोध्या सिंह उपाध्याय ’हरिऔध‘ के एक साक्षात्कार से पता चलता है कि उन्होंने बाल कविताएं काफी पहले से लिखना शुरू कर दिया था और इसलिए वे भी स्वयं को हिंदी का पहला बाल कवि घोषित करने से नहीं हिचके (सन्दर्भ देखें - कृष्ण शलभ संपादित ’बचपन एक समंदर‘ की भूमिका)। डॉ. श्रीप्रसाद हरिऔध जी के इस पक्ष का समर्थन करते हुए ’आजकल‘ पत्रिका के नवम्बर- २००८ अंक में प्रकाशित अपने लेख ’हिंदी की बाल कविताएं‘ में लिखते हैं - ’’प्रथम बाल कवि के रूप में श्रीधर पाठक की चर्चा की जाती है, पर अनुसंधान से अयोध्या सिंह उपाध्याय प्रथम बाल कवि के रूप में सिद्ध होते हैं।‘‘ जबकि डॉ. प्रकाश मनु का अभिमत है कि ’मैथिलीशरण गुप्त, हरिऔध, रामनरेश त्रिपाठी, सुभद्राकुमारी चौहान सबने एक से एक सुन्दर बाल कविताएं लिखीं, पर श्रीधर पाठक की कविताएं इनमें सबसे अलग थीं, और हम बीसवीं सदी के प्रारम्भ की हिंदी बाल कविता की सबसे बडी विभूति के रूप में कृतज्ञतापूर्वक उनका स्मरण करते हैं।‘ (देखें ः ’हिंदी बाल कविता का इतिहास‘, पृष्ठ २१)
इस काल के कवियों की बाल कविताओं पर विचार करते हुए यह भी स्मरण रखना होगा कि यह वह समय था। जब एकल परिवारों का चलन नहीं था, संयुक्त परिवारों के बीच मानवीय रिश्तों का एक घना संजाल हुआ करता था और आस-पास की प्राकृतिक दुनिया से भी बडों तथा बच्चों का सघन रिश्ता जुडा हुआ था, इसलिए उस समय की बाल कविताओं में जीव जगत् तथा बाल जगत् की अनेक मनोरंजक एवं अनूठी छवियां मौजूद दिखाई देती हैं, उदाहरण के लिए श्रीधर पाठक की तोतली भाषा में यह सुविख्यात बाल कविता देखिये-
बाबा आज देल छे आए/चिज्जी-पिज्जी कुछ न लाए/बाबा क्यों नहीं चिज्जी लाए/इतनी देली छे क्यों आए/कां है मेला बला खिलौना/कलाकंद, लड्डू का दोना/चां-चां-गाने वाली चिलिया!चें-चें करने वाली गुलिया.../बाबा तुम और कां से आए/आं-आं-चिज्जी क्यों ने लाए ?
बाल स्वभाव से जुडी इस कविता के सन्दर्भ में डॉ. श्रीप्रसाद का कहना है कि ’श्रीधर पाठक ने बाल कविता में भाषिक प्रयोग के द्वारा एक नई दिशा की ओर संकेत किया है (सन्दर्भ ः आजकल, पूर्वोक्त लेख)
इसी कालखंड के एक और कवि कामताप्रसाद गुरु ने घर की मामूली चीजों को लेकर बहुत ही मनोरंजक बाल कवितायें रची हैं, छडी को लेकर रची गई उनकी कविता थोडी अद्भुत है ’’यह सुंदर छडी हमारी/है हमें बहुत ही प्यारी, हम घोडी इसे बनाएं/कम घेरे में दौडाएं...‘‘ कविता थोडी लम्बी है पर एक छडी कितने रूप ले सकती है इसका नाटकीय वर्णन इस कविता में भलीभांति मिलता है।
छपरा में जन्मे पं. दामोदर सहाय ’कविकिंकर‘ की बाल कविताओं के अनेक संग्रह हैं, जिनमें प्रमुख हैं- ’रसाल‘, ’अंगूर‘, ’सुध सरोवर‘ आदि, प्रकाश मनु के अनुसार - ’’ग्रियर्सन जैसे विद्वानों ने मुक्तकंठ उनकी कविताओं की तारीफ की है। दामोदर जी की बाल कविता मोरों की शिकायत पर है- ’मोर विचारे‘। जिसमें वे ब्रह्मा जी के पास जाकर विलाप करते हैं कि अन्य सभी पक्षियों की बोली मधुर है जबकि उनकी बोली पर लोग हँसते हैं, ब्रह्मा जी उन्हें समझाते हैं कि इस दुनिया में बिल्कुल अच्छा या बिल्कुल बुरा कोई नहीं है, सबमें कुछ गुण हैं तो कुछ दोष, एक तरह से देखा जाए तो इस कविता में कथात्मकता के जो सूत्र गूंथे हुए हैं वे इस कविता को और भी प्रभावी बना देते हैं।
मार्ग प्रशस्त किया बल्कि स्वयम् भी अनेक मनोरंजक कविताएं लिखीं। उनकी एक बाल कविता - ’हाऊ और बिलाऊ‘ अपनी कथात्मकता और नेक तथा बुरे चरित्र की पहचान के कारण बहुत प्रसिद्ध हुई।
उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दो दशक (१८८१-१९००)
आठवें दशक से जरा और आगे बढें तो उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दो दशकों में जन्मे बहुत से ऐसे पुरोधा बालसाहित्यकार हैं जिन्होंने हिंदी बाल साहित्य को एक से बढकर एक नायाब बालरचनाएं दी हैं और इसी कालखंड ने हमें प्रेमचंद जैसा महान् लेखक भी दिया जिन्होंने आगे चलकर हिंदी जगत् को पहला बाल उपन्यास ’कुत्ते की कहानी‘ और ’जंगल की कहानियां‘ सहित अनेक यादगार रचनाएं दीं।
इस दौर के उल्लेखनीय साहित्यकार हैं - मन्नन द्विवेदी ’गजपुरी‘ (१८८५-१९२१), प्रेमचंद (१८८५-१९३६ लमही-वारणसी, प्रमुख बाल कृतियां ः ’कुत्ते की कहानी‘, ’जंगल की कहानियां‘, ’वीर दुर्गादास‘, ’राणाप्रताप‘ आदि), मैथिलीशरण गुप्त (ज. १८८६-१९६४, चिरगांव, झांसी ः ’यशोधरा..‘, ’स्फुट बाल कवितायें‘), माखनलाल चतुर्वेदी (ज. १८८९-१९३८), राम नरेश त्रिपाठी (ज. १८९०-१९६२, प्रमुख कृतियां ’हंसू की हिम्मत‘, ’मोहन माला‘, ’मोहन भोग‘, ’वानर संगीत‘, ’कविता विनोद‘, ’मोतीचूर के लड्डू‘), गोपालशरण सिंह (ज. १८९१-), विद्या भूषण विभु (ज. १८९२-१९६५ प्रमुख कृतियांः ’चार साथी‘, ’बबुआ‘, ’पंख-शंख‘ सहित अनेक बाल पुस्तकें), देवीप्रसाद गुप्त ’कुसुमाकर‘ (ज. १८९३-), मुरारीलाल शर्मा ’बंधु‘ (ज. १८९३-१९६१, ’सेमल की टिकरी‘, मेरठ ः प्रमुख कृतियां ः ’बच्चे‘, ’होनहार बिरवे‘, ’गोदी भरे लाल‘, ’ज्ञान गंगा‘, ’कोकिला‘), भूपनारायण दीक्षित (ज. १८९५-१९८६, सहबसु-कानपुर ः प्रमुख कृतियां, ’खड-खड देव‘, ’गधे की कहानी‘, ’नटखट पांडे‘, ’नया आल्हा‘, ’नानी के घर टंटू‘, ’बाल-राज्य‘, ’साहसी कौवा‘, और जहूर बख्श (ज. १८९७-१९६४, भोपाल)
एक जमाने में मन्नन द्विवेदी ’गजपुरी‘ की यह प्रार्थना स्कूल के बच्चों में बहुत ही लोकप्रिय थी - विनती सुना लो हे भगवान/हम सब बालक हैं नादान‘, इसके अलावा गजपुरी जी की ’आम रसीले‘ और ’जामुन‘ सुपरिचित बाल कविताएं हैं।
कथा सम्राट् प्रेमचंद (ज. १८८५-नि. १९३६-लमही, वाराणसी) ने वयस्कों के अलावा बच्चों के लिए अनन्य रूप से कितना साहित्य रचा इस पर मैं साधिकार कोई टिप्पणी नहीं कर सकता, हालांकि उनकी बहुत-सी कहानियां जैसे ’ईदगाह‘, ’ठाकुर का कुआं‘, ’दो बैलों की कथा‘, ’नमक का दारोगा‘, ’पंच परमेश्वर‘, ’कफन‘, ’बडे भाई साहेब‘, आदि बच्चों के पाठ्यक्रम में शामिल की जा चुकी हैं पर ’कुत्ते की कहानी‘ जिसे हिंदी के अनेक विशिष्ट बाल साहित्यकार/आलोचक हिंदी का पहला बाल उपन्यास मानते हैं निस्संदेह बच्चों के लिए ही लिखी गई रचना है और इसे अलग से प्रमाणित करने की जरूरत नहीं, कृति के आमख के रूप में दिनांक १४ जुलाई, १९३६ का बच्चों के नाम लिखा गया लेखक का संबोधन-पत्र स्वतः इसे प्रमाणित करता है।
’कुत्ते की कहानी‘ के सन्दर्भ में मैं एक और बात यहां रेखांकित करना चाहूंगा कि प्रेमचंद बनारस के लमही गांव में पैदा हुए, ग्रामीण परिवेश में पले-बढे, खेती-बाडी, महाजनी सभ्यता, भुखमरी, गरीबी, आजादी की लडाई, भारतीय समाज की रूढ, सभी को उन्होंने अपनी नंगी आँखों से देखा और जहां भी, जिस तरह संभव हुआ, अपने समय की कुरीतियों का विरोध किया, जीव-जंतुओं के जगत् को उन्होंने किसी चिडयाघर में नहीं देखा, वह तो उनके ग्रामीण-परिवेश का ही अटूट हिस्सा थे ’दो बैलों की कहानी‘ में जिस तरह हीरा-मोती जैसे यादगार चरित्र उन्होंने रचे ठीक उसी तरह इस बाल उपन्यास का नायक कल्लू कुत्ता भी एक यादगार चरित्र के रूप में हमारे सामने आता है, सहृदयता और संवेदशीलता लेखक के सबसे बडे गुण होते हैं, ’मूकम करोति वाचालं‘ वाली उक्ति को चरितार्थ करते हुए प्रेमचंद इस बाल उपन्यास में कल्लू कुत्ते को मनुष्य की वाणी देते हैं और उसी की जुबानी एक मनोरंजक एवं प्रेरक कथा सुनाते हैं जिससे कतिपय उपकथाएं भी जुडी हुई हैं।
प्रेमचंद की दूसरी यादगार कृति है ’जंगल की कहानियां‘ जिसमें रोमांच, साहस और हास्य से भरी अनेक कथाएं हैं जो प्रेमचंद ने बच्चों को दृष्टि में रख कर लिखी हैं, यदि प्रेमचंद और कुछ वर्ष जिए होते तो उनका और भी बालसाहित्य आज हमारे सामने होता।
इसी दौर के एक विशिष्ट कवि विद्याभूषण विभु हैं जिनकी ’घूम हाथी‘ बालकविता एक अनोखी ध्वन्यात्मकता के कारण अपनी अलग पहचान बनाती है हालांकि इसमें सामंतशाही प्रतीकों के कुछ संकेत हैं (जैसे राजकुमार, फौजें आदि) पर किसी भी रचना को उसके देशकाल से जोडकर ही परखा जाना चाहिए, कवितांश इस प्रकार है-
घूम हाथी, झूम हाथी/ घूम हाथी, झूम हाथी/ राजा झूमें, रानी झूमें झूमें राजकुमार/ घोडे झूमें, फौजें झूमें, झूमें सब दरबार/ घूम हाथी, झूम हाथी/ घूम हाथी, झूम हाथी/ राजमहल में बांदी झूमें/ पनघ्kV ij ifugkjh@ पीलबांन पर अंकुश घूमे, सोने की अंबारी/ घूम हाथी, झूम हाथी/ घूम हाथी, झूम हाथी‘।
मैथिलीशरण गुप्त (१८८६-१९३४, चिरगांव, झांसी ः यशोधरा.. ’स्फुट बाल कविताएं‘) ने वयस्कों के लिए काफी साहित्य रचा और उनकी ’भारत-भारती‘ एक अनुपम कृति के रूप में समादृत हुई पर उनकी कुछ बाल कवितायें भी यहां उल्लेखनीय हैं जैसे -
’माँ कह एक कहानी/समझ लिया क्या तूने मुझको अपनी नानी।‘ ध्यातव्य है कि गुप्त जी की ’ओला‘ कविता को महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ’सरस्वती‘ में १९०६ में छापकर एक नई परंपरा का सूत्रपात किया था- ’एक सफेद बडा सा ओला/था मानो हीरे का गोला/हरी घास पर पडा हुआ था/ वहीं पास में खडा हुआ था...
राम नरेश त्रिपाठी इस कालखंड में जन्मे एक बडे कवि हैं, उनकी बाल कवितायें ’चंदा मामा, तिल्लीसिंह‘ व ’नंदू को जुकाम‘ बहुत ही सुप्रसिद्ध हैं-
चंदा मामा गए कचेहरी, घर में रहा न कोई/मामी निशा अकेली घर में कब तक रहती सोई... पहने धोती कुरता झिल्ली/गमछे से लटकाएं किल्ली/कसकर अपनी घोडी लिल्ली/तिल्लीसिंह जा पहुंचे दिल्ली।
इसी तरह ठाकुर गोपालशरण सिंह (१८९१) की वायुयान पर रची यह सुंदर कविता बच्चे की कल्पना का मोहक वर्णन करते हैं-
सुंदर, सजीला चटकीला वायुयान एक/भैया, हरे कागज का आज मैं बनाऊंगा/चढ के उसी पे सैर नभ की करूंगा खूब/-बादल के साथ-साथ उसको उडाऊंगा।
इस कालखंड के दो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बालसाहित्यकार भूप नारायण दीक्षित और जहूर बख्श की ख्याति यद्यपि बाल उपन्यासकार और बालकथाकार के रूप में ही रही है पर यह देख कर आश्चर्य होता है कि उन्होंने भी कुछ बहुत ही सुन्दर बाल कवितायें रची हैं। भूप नारायण दीक्षित की रसगुल्ला पर लिखी यह बाल कविता भला किस बच्चे को प्रिय नहीं लगेगी-
तू धन्य-धन्य है रसगुल्ला/तुझमें रस है कोमलता है, नीरसता का है नाम नहीं/ तुझको खाने में रसगुल्ले, दांतों को कोई काम नहीं/ सब इसीलिये तुझ पर लट्टू, चाहे काजी हो या मुल्ला,
दीक्षित जी बाल मनोविज्ञान के पारखी रचनाकार थे, इसीलिये उनके बाल उपन्यास- ’खड-खड देव‘, ’बाल राज्य‘, ’नानी के घर टंटू‘, ’साहसी कौवा‘, हिंदी बाल कथासाहित्य की अमूल्य निधि हैं। बालसाहित्य के और प्रखर आलोचक, प्रकाश मनु का यह कहना सही है कि स्वातन्त्र्योत्तर काल के दीक्षित जी पहले हिंदी बाल उपन्यासकार हैं।
जहूर बख्श (ज. १८९७-१९६४ मछरवाही, गढाकोटा सागर) मूलतः कथाकार थे, उनकी लिखी बहुत सी बाल कहानियां आज भी मानक बाल कहानियों में गिनी जाती हैं। जिनमें प्रमुख हैं- ’तीन के तीन‘, ’आधी रोटी तीन करेला‘, ’सोने का पानी‘ (परी कथा) ’चुभती भूल‘ (आत्मकथात्मक कहानी) और उनकी चर्चित कथा पुस्तकें हैं- ’इतिहास की कहानियां‘, ’हवाई कहानियां‘, ’सोनपरी‘, ’हाय नागिन‘, ’घोडी की खेती‘, ’आदिवासियों की कहानियां‘, ’ईसप की कहानियां‘, ’मनोरंजक कहानियां‘, ’अनोखी कहानियां‘, ’मजेदार कहानियां‘, ’कथा माला‘ आदि, उनकी एक बेहद लोकप्रिय बाल कविता है- ’बढई‘- हमारे यह कहलाते, जंगल से लकडी मंगवाते... कुर्सी टेबल यही बनाते/ बाबू जिनसे काम चलाते..‘ एक और मनोरंजक बाल कविता है- ’’चल मेरे मटके टम्मक-टुं‘, जहूर बख्श यदि एक सांप्रदायिक दंगे की भेंट नहीं चढते तो उनका और भी बहुत सा बालसाहित्य आज हमारे सामने होता।
बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दो दशक (१९०१-१९२०)
इस कालखंड में जन्मे पुरोधा बालसाहित्यकारों की पंक्ति में कुछ उल्लेखनीय नाम हैं- ठाकुर श्रीनाथ सिंह (ज. १९०१-१९९६ मानपुर, इलाहबाद, ः प्रमुख कृतियां ः ’गुब्बारा‘, ’दोनों भाई‘, ’पिपहरी‘, ’बालभारती‘, ’लंबा-चौडा‘, ’मीठी तानें‘, ’खेलघर‘, ’बाल कवितावली‘), शम्भूदयाल सक्सेना (ज. १९०१-१९८६, फरूखाबाद ः प्रमुख कृतियां ः ’पालना‘, ’मधु लोरी‘, ’लोरी और प्रभाती‘, ’फूलों के गीत‘, ’चन्द्र लोरी‘, ’आ री निंदिया‘, ’रेशम झूला‘, ’शिशु लोरी‘, ’नाचो गाओ‘, ’बाल कवितावली‘), सभामोहन अवधिया ’स्वर्णसहोदर‘ (ज. १९०२-१९८०, शाहपुरा-मंडला ः प्रमुख कृतियां ः ’चगन-मगन‘, ’गिनती के गीत‘, ’नटखट हम‘, ’ललकार‘, ’लाल फाग‘, ’बाल खिलौना‘, ’वीर बालक‘, ’बादल‘, ’वीर हकीकत राय‘, ’शतमन्यु‘, ’बच्चों के गीत-४ भाग‘), सुभद्रा कुमारी चौहान (ज. १९०४-१९४८, निहालपुर, इलाहबाद, ः प्रमुख कृतियां ः ’कोयल‘, ’सभा का खेल‘), सोहनलाल द्विवेदी (१९०६-१९८८, बिन्दकी-फतेहपुर ः प्रमुख कृतियां ः ’दूध बताशा‘, ’बिगुल‘, ’शिशु भारती‘, ’बाल भारती‘, ’बांसुरी‘, ’हँसो-हँसाओ‘, ’शिशु गीत‘, ’बच्चों के बापू‘, ’गौरव गीत‘, ’बाल सिपाही‘, ’हम बलवीर‘, ’हुआ सवेरा‘, ’उठो-उठो‘, ’गीत भारती‘), महादेवी वर्मा (१९०७), रमापति शुक्ल (१९०८-१९९३ नारायणपुर, गोरखपुर ः प्रमुख कृतियां ः ’अंगुरों का गुच्छा‘, ’हुआ सवेरा‘, ’शैशव‘, ’राष्ट्र के बापू‘, ’मुन्नी की दुनिया‘, ’बच्चों के भावगीत‘), रामेश्वर दयाल दुबे (१९०८ लखनऊ, प्रमुख कृतियां ः ’अभिलाषा‘, ’चलो-चलो‘, ’डाल-डाल के पंछी‘, ’माँ यह कौन‘, ’कुकडूं कूं‘, ’फूल और कांटे‘, ’धरती के लाल‘) रामधारी सिंह दिनकर (१९०८-१९७४ सिमरिया-मुंगेर ः प्रमुख कृतियां ः ’धूप-छांह‘, ’मिर्च का मजा‘, ’सूरज का ब्याह‘),
आरसी प्रसाद सिंह (१९११-१९९६, पुरैख- दरभंगा, प्रमुख कृतियां ः ’चंदा मामा‘, ’चित्रों में लोरियां‘, ’ओनामासी‘, ’जादू की वंशी‘, ’कागज की नाव‘, ’बाल गोपाल‘, ’हीरा मोती‘, ’राम कथा‘, कन्हैयालाल मत्त (१९११-२००३-जर्खी-एत्मादपुर, आगरा, प्रमुख कृतियां ः ’लोरियां और बालगीत‘, ’अब है मेरी बारी‘, ’बोल री मछली कितना पानी‘, ’स्वर्ण हिंडोला‘, ’रजत पालना‘, ’खेल तमाशे‘, ’आटे-बाटे-सैर सपाटे‘), भवानी प्रसाद मिश्र (१९१३- तिगरिया, होशंगाबाद ः ’तुर्कों के खेल‘), शकुंतला सिरोठिया (१९१५-२००५ कोटा-राज. ’गा ले मुन्ना‘, ’चटकीले फूल‘, ’नन्ही चिडया‘, ’सोन चिरैया‘, ’कारे मेघा‘, ’पानी दे‘, ’आ री निंदिया‘, ’बालगीत‘), द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी (ज. १९१६-१९९८ रौहता-आगरा, प्रमुख कृतियां ः ’काटो और गाओ‘, ’बढे चलो‘, ’माखन मिश्री‘, ’हाथी घोडा पालकी‘ सहित अनेक बाल पुस्तकें), अमृतलाल नागर (ज. १९१६-१९९०, आगरा), कहानियां- ’अमृतलाल नगर बैंक लिमिटेड‘, ’लिटिल रेड इजिप्शिया‘, ’सात पूंछों वाला चीकू‘, उपन्यास- ’बजरंगी-नौरंगी‘, बजरंगी पहलवान, ’बजरंगी स्मगलरों के फंदे में ‘तथा ’अक्ल बडी या भैंस‘, नाटक- ’परी देश की सैर‘ और ’बालदिवस की रेल‘, अन्य- ’बाल महाभारत‘) निरंकार देव सेवक (१९१९-१९९४, बरेली, ’हिंदी बालगीत साहित्य इतिहास एवं समीक्षा‘, ’मुन्ना के गीत‘, ’धूप-छाया‘, ’चाचा नेहरू के गीत‘, ’दूध जलेबी‘, ’माखन मिसरी‘, ’रिमझिम‘, ’फूलों के गीत‘, ’मटर के दाने‘, ’महापुरुषों के गीत‘, ’शेखर के बालगीत‘, ’पपू के बालगीत‘, ’बिल्ली के गीत‘, ’आजादी के गीत‘, ’टेसू के गीत‘, ’बीन बजाती बिल्ली रानी‘, ’चिडयां रानी‘, ’गीत कथाएं सोने की‘ आदि कुल मिला कर लगभग तीस किताबें), शान्ति अग्रवाल (१९२० बरेली, प्रमुख कृतियां ः ’बाल वीणा‘, ’जागा हिंदुस्तान‘, ’अगडम-बगडम‘)।
ठाकुर श्रीनाथ सिंह (ज. १९०१) के आरंभिक काल में अद्भुत बाल कवितायें लिखीं पर उनकी सबसे अधिक मनोरंजक बाल कविता मुझे ’नानी का संदूक निराला‘ ही लगती है-
नानी का संदूक निराला/पीछे से वह खुल जाता है। आगे लटका रहता ताला।
श्रीनाथ सिंह के अलावा इस दौर के शम्भू दयाल सक्सेना ने भी छोटी बहर की बडी ही सहज बाल कविताएं लिखी हैं, उदाहरण के लिए-
खिडकी है मकान की आँख/, लेते सभी उसी से झांक/आता जब कोई इस ओर, खिडकी तब कर देती शोर... या फिर उनकी ’सडक‘ कविता- कोई कहां गया था जिस दिन/जनम लिया था मैंने उस दिन/अब भी जहां कोई जाता/ मुझको अपना साथी पाता।
इसी तरह सभामोहन अवधिया ’स्वर्ण सहोदर‘ (१९०२-१९८०) ने बहुत सी ऐसी बाल कविताएं लिखी हैं जो बालकों के नटखट और चंचल स्वभाव का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करती है।
’झांसी की रानी‘ जैसी मशहूर वीर रस की लोकप्रिय कविता की रचयिता सुभद्रा कुमारी चौहान (१९०४-१९४८) किसी परिचय की मोहताज नहीं है, उन्होंने बच्चों के लिए काफी कवितायें लिखीं पर उन पर भी राष्ट्रीय कवयित्री का ठप्पा लगा रहा, ’वीरों का कैसा हो बसंत‘ उनकी इसी श्रेणी की कविता थी, पर बाल मन को छूने वाली तो उनकी ये ही कुछ कविताएं हैं-
’’मैं बचपन को बुला रही थी/बोल उठी बिटिया मेरी‘‘, या फिर ’’यह कदम्ब का पेड अगर माँ होता जमना तीरे/मैं भी इस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे‘‘, जिनके लिए उन्हें बाल कवयित्री के रूप में याद किया जाना चाहिए।
इस दौर के गांधीवादी पुरोधा बाल साहित्यकारों में सोहन लाल द्विवेदी (१९०६-१९८८) का नाम अविस्मरणीय है, हालांकि उन्हें उनकी राष्ट्रभक्ति की कविताओं की सीमाओं में ही सीमित कर दिया गया, पर ये कुछ बाल कविताएं उन्हें इस दौर बहुत बडे बालकवि के रूप में स्थापित करती हैं-
मैंने पाले बहुत कबूतर/भोले-भाले बहुत कबूतर/ढंग-ढंग के बहुत कबूतर/रंग-रंग के बहुत कबूतर/कुछ उजले, कुछ लाल कबूतर/चलते छम-छम चाल कबूतर/कुछ नीले, बैजनी
कबूतर/पहने हैं पैंजनी कबूतर/याद आ रहा वह घर अपना/लगता है, जैसे हो सपना।
‘ ‘ ‘
छायावाद की विख्यात कवयित्री महादेवी वर्मा (१९०७-१९८७) ने बडों के साहित्य के अलावा बच्चों के लिए भी पर्याप्त लिखा है। उनकी बाल कविताओं के दो संग्रह हैं, पहला- ’ठाकुरजी भोले हैं‘ और दूसरा- ’आज खरीदेंगे हम‘। ’कोयल‘ कविता का एक अंश-
घर में पेड कहां से लाए/ कैसे यह घोंसला बनाए/कैसे फूटे अंडे जोडे/किससे यह सब कहेगी/ अब यह चिडया कहां रहेगी ?
रमापति शुक्ल (ज. १९११) इस दौर के अनूठे बाल कवि हैं, उनकी इस बाल कविता का तो कोई जवाब ही नहीं जो घरेलू चीजों को केंद्र में रखकर ऐसे सवाल खडे करती है जिन्हें सुन कर बच्चे तो बच्चे, बडे-बडे भी दांतों तले उंगली दबा लें-
आलपीन के सर होता पर बाल न होता उस पर एक/कुर्सी के दो बांहें हैं पर गेंद नहीं सकती वह फेंक/कंघी के हैं दांत मगर यह चबा नहीं सकती खाना/गला सुराही का है पतला, किन्तु न गा सकती गाना।
एक तरह से देखा जाए तो ये वे कवि हैं जिनके पास अनेक श्रेष्ठ बाल कविताएं हैं पर जो अपनी इक्की-दुक्की श्रेष्ठ कवितओं के बल पर ही बालसाहित्य के पुरोधाओं की पंक्ति में शामिल हो सकते हैं। यहां प्रश्न संख्या का न होकर की गुणात्मकता का है। गुलेरी जी की मात्र तीन कहानियां ही उन्हंे अग्रिम पंक्ति के कथाकरों में खडा कर देती हैं।
रामेश्वर दयाल दुबे (ज. १९०८, हिन्दपुर, मैनपुरी) की ’खोटी अठन्नी‘ एक कथात्मक कविता है जिसका एक अंश यहां प्रस्तुत है-
आओ तुम्हें सुनाएं अपनी बात बहुत ही छोटी/किसी तरह आ गई हमारे पास अठन्नी खोटी/ साग और सब्जी लेने में उसे खूब सरकाया। कभी सिनेमा की खिडकी पर मैंने उसे चलाया... किन्तु कहूं क्या ’खोटी‘ कहकर सबने ही लौटाई। बहुत चलाई, नहीं चली वह, लौट जेब में आई।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर (१९०८) की ’झंगोला‘ बाल कविता का यहां जिक्र न किया जाए तो यह आलेख अपनी सम्पूर्णता को नहीं पा सकता, दिनकर जी चन्द्रमा को ही बच्चा, बना देते हैं जो माँ से अपने लिए एक झंगोला सिलने के लिए कहता है और माँ उलटे शिकायत करती है कि तू तो कभी कभी घटता है तो कभी बढता है, फिर तेरे लिए किस नाप का झंगोला सिलूं, कुल मिलाकर यह बहुत ही प्यारी बाल कविता है जो दिनकर जी को पुरोधा बालकवियों में खडा करती है।
आरसी प्रसाद सिंह (१९११) इस दौर के ऐसे बाल कवि हैं जिन्होंने बाल कविताओं को गजल का शिल्प दिया और अलग ढंग की बाल कविताएं लिखीं।
तुकबंदी करने में और तुकबंदी बच्चों को सिखाने में आरसी प्रसाद सिंह का जवाब नहीं। देखिये- ’’गांधी से आंधी मिलती है, मिलता काला से ताला, गंगा से दरभंगा मिलता, मिलती लाल से माला, इसी तरह चांदी से बंदी, कोना से मिलता सोना, तुकबंदी में मंदी मिलती, खोना में मिलता रोना।‘‘ कन्हैयालाल मत्त (१९११) इस काल खंड के दिग्गज और सबसे निराले बाल कवि हैं।
चुटीले शिशुगीत और रंग-बिरंगी बाल कविताओं के रचयिता मत्त जी की एक किताब है। ’बाजार की सैर‘ जिसमें उनकी एक लम्बी कविता है और कविता क्या है पूरी बाजार की सैर है , तरह तरह के पकवान, तरह-तरह की चीज सबका इतना रोचक वर्णन है कि हैरानी होती है - अरे, एक बाल कविता में ऐसी भी चीजों को समेटा जा सकता है.. मत्त जी ने हिंदी बाल काव्य को इतना अधिक समृद्ध किया है कि उन्हें पुरोधा बाल कवि की संज्ञा देना सर्वथा उचित लगता है।
वेशभूषा से सौम्य-संत दिखने वाले गांधीवादी लेखक, बालसाहित्यकार विष्णु प्रभाकर (१९१२) का हिंदी बाल साहित्य के लिए भी महत्त्वपूर्ण योगदान है, ’’पहाड चढे गजनन्दन लाल, दक्खन गए गजनन्दन लाल।‘‘ ’बाबू जी बरात में‘ उनकी बहुत ही मजेदार बाल कहानियां हैं जिनमें हास्य और विनोद का गहरा पुट है, इनके अलावा विष्णु जी ने बच्चों के लिए अनेक एकांकी नाटक लिखे हैं जिनका कई बार मंचन भी हुआ है।
भवानी प्रसाद मिश्र (ज. १९१३-टिगरिया, होशंगाबाद) की बाल कवितायें बच्चों के लिए कौतुक की तरह हैं। वे सहज शब्दों में बातचीत के लहजे में ही कविता रच देते हैं जो बच्चों को सहज रूप से ग्राह्य हो जाती हैं। वे जितने बडे वयस्कों के कवि हैं उतने ही सहज बच्चों के कवि हैं, उदाहरण के लिए उनकी यह छोटी-सी कविता देखिए-
अक्कड-मक्कड, धूल में धक्कड/ दोनों मूरख, दोनों अक्खड/हाट से लौटे, ठाट से लौटे/एक साथ एक बात से लौटे।
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साल शुरू हो दूध दही से/साल खत्म हो शक्कर घी से/पिपरमेंट, बिस्किट, मिस्री से/ रहे लबालब दोनों खीसें।
शकुंतला सिरोठिया (१९१५ कोटा) ने मधुर बाल कविताएं और लोरियां लिखी हैं। उनकी कुछ कविताएं प्रस्तुत हैं- ’’हाथी आता झूम के/ धरती-मिट्टी चूम के,‘‘ या फिर ’’चंदा मामा ठहरो थोडा/कहां चले तुम जाते हो..... खेल रहे क्या आँख मिचौनी/बादल में छिप जाते हो।‘‘
इस दौर के पुरोधा बाल कवि द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी (१९१६-१९९८) ने विपुल बाल साहित्य रचा, जो कालांतर में उनकी समग्र रचनावली के रूप में प्रकाशित हुआ। उनकी कुछ बाल कविताएं ओज से ओतप्रोत हैं तो कुछ बाल मनोरंजन का अद्भुत उदाहरण हैं, जैसे-
वीर तुम बढे चलो/धीर तुम बढे चलो/आज प्रातः है नया/ आज साथ है नया/आज राह है नई/आज चाह है नई।
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यदि होता किन्नर नरेश मैं राजमहल में रहता/सोने का सिंहासन होता, सर पर मुकुट चमकता।
अमृतलाल नागर (ज. १९१६-१९९०, आगरा) बीसवीं शताब्दी के दिग्गज कथाकार माने जाते हैं। उनका प्रमुख क्षेत्र कथा का ही रहा, पर बच्चों के लिए उन्होंने पद्यकथाओं के साथ-सभी विधाओं में लिखा और ऐसा लिखा कि उसका कोई सानी नहीं। नागर जी के पास एक सशक्त भाषा, विनोदी शैली तथा किस्सों का अनंत भंडार सभी कुछ था। इसलिए उनकी बाल कहानियां हों या बाल उपन्यास सभी बच्चों को बहुत ही भाते हैं। उनकी कुछ प्रमुख रचनाओं के नाम हैं- बालकहानियां- अमृतलाल नगर बैंक लिमिटेड, ’लिटिल रेड इजिप्शिया‘, ’सात पूंछें वाला चीकू‘, बाल उपन्यास- ’बजरंगी-नौरंगी‘, ’बजरंगी पहलवान‘, ’बजरंगी स्मगलरों के फंदे में‘ तथा ’अक्ल बडी या भैंस‘, नाटक- ’परी देश की सैर‘ और ’बालदिवस की रेल‘, अन्य- ’बाल महाभारत‘, इधर नागर जी की सम्पूर्ण बालरचनाएं भी एक पुस्तक के रूप में लोकभारती प्रकाशन इलाहबाद से प्रकाशित हुई है जो सभी के लिए उपयोगी सद्ध होगी।
स्वतंत्रता प्राप्ति काल तक (१९२१-१९४७)
इस इस दौर की एक जानी-पहचानी कवयित्री सरोजिनी कुलश्रेष्ठ (ज. १९२३, दधेरा-मथुरा) हैं। भूकंप पर लिखी उनकी यह बालकविता बच्चे के मन में सवाल भी उठाती है और उसके परिणामों को मार्मिकता से दर्शाती है-
माँ, धरती क्यों डोल रही थी, घुर-घुर करती बोल रही थी/... लोग मर गए इतने सारे, / बिछुड गए आफत के मारे/कुछ रोते रह गए बेचारे/ घर भी टूट गए हैं सारे/ क्यों इतना विष घोल रही थी।
हिंदी के बाल रंगमंच से जिनका नाता और जुडाव रहा है वे रेखा जैन (१९२४) के व्यक्तित्व और कृतित्व से अपरिचित नहीं होंगे। बच्चों की दुनिया में पूरी तरह रची बसी रेखा जैन ने अभिनय-कला , नाट्य-लेखन और बाल रंगमंच को अपने अनुभव और प्रतिभा से जोडकर नई ऊंचाइयां दीं और नाटक की शिक्षा में कितनी महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है इसका भी प्रमाण प्रस्तुत किया। वे शिक्षा को उसकी जड प्रकृति से हटाकर मनोरंजन की ओर उन्मुख करती रहीं और ’गणितदेश‘ जैसा नाटक रचकर उन्होंने गणित जैसे विषय की दुरूहता को भी आसान कर दिया।
१९२४ में कानपुर में जन्मे चंद्रपाल सिंह यादव ’मयंक‘ ने अपने लगभग सात दशकों के रचना काल में अनेक बाल कवितायें लिखीं और हिंदी के पुरोधा बाल कवियों में अपनी जगह स्वयं बनाई। उनकी प्रमुख पुस्तकें है- ’जागृति-गीत‘, ’किसान-गीत‘, ’परियों का नाच‘, ’दूध मलाई‘, ’हिम्मत वाले‘, ’बज गया बिगुल‘, ’राजा बीटा‘, ’हम देश की मुस्कान‘, ’जंगल का राजा‘, ’हिंदी गीत माला १-२‘, ’बन्दर की दुल्हन‘, ’मुनमून‘, ’सर्कस‘ मयंक जी आज की विख्यात बाल साहित्य लेखिका डॉ. उषा यादव के पिता थे और मयंक जी की बाल कविताओं ने अपने जमाने की श्रेष्ठ बाल पत्रिका ’पराग‘ सहित अनेक पत्र-पत्रिकाओं में धूम मचा रखी थी, हालांकि उनकी सभी बाल कवितायें ’श्रेष्ठ‘ की श्रेणी में नहीं आतीं, पर यह उक्ति किसी भी रचनाकार पर लागू की जा सकती है।
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना (ज.१९२७-१९८३, पिकौरा-बस्ती,) की गणना हिंदी के बडे लेखकों, और कवियों में की जाती है पर न केवल उन्होंने श्रेष्ठ और नए मुहावरे से युक्त बाल कवितायें लिखी हैं, बल्कि उनकी बाल कहानियों तथा लोकप्रिय बाल नाटकों ने भी अपनी अमिट छाप छोडी है, शायद इसीलिए उन्हें हिंदी के पुरोधा बालसाहित्यकारों में शामिल करना उचित लगता है। ’इब्ने बतूता‘, ’महंगू की टाई‘ जैसी अनूठी बाल कविताएं, ’अपना दाना‘, ’सफेद गुड‘, ’जून चाट पानी लाल‘ और ’टूटा हुआ विश्वास‘, जैसी जीवन मूल्यों से ओतप्रोत बाल कहानियां और ’भों-भों खोंखों‘, ’लाख की नाक‘ जैसे लोकप्रिय बाल नाटकों के कारण वे अपनी पूरी पीढी में सबसे अलग खडे नजर आते हैं। हिंदी बालसाहित्य को आधुनिक सन्दर्भों से जोडकर उन्होंने उसे नई गरिमा प्रदान की है।
इस दौर के तीन उल्लेखनीय वरिष्ठ कवि सीताराम गुप्त (१९२७), प्रेमनारायण गौड (१९२७), नारायणलाल परमार (१९२७) हैं, जिन्होंने कई दशकों तक लिखकर हिंदी बालकविता को समृद्ध किया है, सीताराम गुप्त की एक बहुत ही पुरानी बाल कविता बचपन में ’पराग‘ में पढी थी- ’उड चली गगन छूने पतंग‘ इस कविता की अब पहली ही पंक्ति याद रह गई, प्रेम नारायण गौड और नारायणलाल परमार भी काफी समय से बालकवितायें लिख रहे हैं और उन्होंने हिंदी बाल साहित्य में बहुत कुछ नया जोडा है।
राम निरंजन शर्मा ’ठिमाऊ‘ (१९२८-पिलानी, प्रमुख कृतियां ः ’बालोत्सव‘, ’बाल कवितावली‘), ठिमाऊ जी बहुत ही सहज शब्दावली में लिखने वाले बाल कवियों में से थे पर उनकी कविताओं के सन्दर्भ समसामयिक हुआ करते थे, उदाहरण के लिए उनकी महंगाई पर केन्दि्रत यह बाल कविता देखिये - पप्पू ने दीदी से पूछा क्या होती महंगाई/सभी इसी की चर्चा करते, चली कहां से आई ?/हम दोनों के गुल्लक दीदी, मम्मी ने क्यों खोले, बिल वाले के आज कान में, पापा जी क्यों बोले? इस पूरी कविता में एक मध्यवर्गीय परिवार की मुश्किलों और बच्चे के मन में उठते सवालों का मार्मिक चित्रण है।
मनोहर वर्मा (ज. १९३१-अजमेर, प्रमुख कृतियां ः ’भुलक्कड बिल्ली‘, ’हम सब एक हैं‘, ’मेरी प्रिय बाल कहानियां‘, सहित एक सौ से ऊपर पुस्तकें), इस दौर के एक वरिष्ठ बाल साहित्यकार हैं जो लेखन और सम्पादन दोनों में सिद्धहस्त रहे हैं, आत्मप्रचार से सर्वथा परे रहकर वे मौन साधनारत रहे हैं और उन्होंने एक-से-एक बढकर श्रेष्ठ बाल कहानियां हिंदी जगत् को दी हैं, उनकी कहानियों का एक महत्त्वपूर्ण संग्रह - ’मेरी प्रिय बाल कहानियां‘ है जिसमें उनकी बत्तीस बाल कहानियां संगृहीत हैं, उत्कृष्ट बाल लेखन के लिए वे अनेक सम्मानों और पुरस्कारों से अलंकृत हुए हैं और अब तक उनकी एक सौ पचास से अधिक बाल कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं। वे न केवल राजस्थान के साहित्य गौरव के रूप में समादृत हैं बल्कि देश के प्रमुख वरिष्ठ हिंदी बालकथाकारों में गिने जाते हैं, ’नन्हा जासूस‘, ’मन के लड्डू लाख के‘, ’दोस्ती का तमाशा‘, ’ननकू की कमीज‘, ’दादा जी की बत्तीसी‘, ’आंधी में उडा कागज‘, ’मामला एक सोने की चेन का‘, ’सर्कस में एक रात‘ उनकी स्मरणीय कहानियां कही जा सकती हैं।
’बांकी-बांकी धूप‘ और ’दामोदर अग्रवाल की १०१ बाल कवितायें‘ के रचयिता दामोदर अग्रवाल (ज. १९३२-२००१, वाराणसी) अपनी पीढी में सबसे अलग और सबसे निराले बाल कवि हैं जिनका कोई सानी नहीं, उन्होंने नई काट की और नए बिम्बों के लेकर ऐसी बाल कविताएं रची हैं जो बालमन की अतल गहराइयों को भी छूती हैं और बाल कल्पनाओं की ऊंची-से ऊंची उडान भी भरती हैं, शायद वे अकेले ऐसे कवि हैं जिनकी बाल कविताओं की उठान सबसे अनूठी और ताजी है और उन कविताओं के साथ उनका नाम भी नहीं चिपका हो तो भी उनकी पहचान छुपती नहीं, आँख मूंद कर वे पहचानी जा सकती हैं कि ये रचनाएं दामोदर अग्रवाल की हैं, पुरोधा का अलंकरण बाल लेखकों को सिर्फ उनकी बडी वय से ही नहीं मिलता है, वह मिलता है, उनके बडे और अप्रतिम काम से फिर वह संख्या में भले कम क्यों न हो।
कमलेश्वर (ज. १९३२-२००७ मैनपुरी) ने यद्यपि अपना अधिकांश लेखन वयस्कों के लिए ही किया पर उनकी कुछ बाल कहानियां और बाल नाटक हिंदी बाल साहित्य में उनका अप्रतिम स्थान बनाते हैं, कमलेश्वर अद्भुत प्रतिभा के धनी लेखक तो थे ही वे बालमन के भी बडे पारखी थे। उनकी प्रमुख रचनाओं में बालकहानी- ’होताम के कारनामे‘ और बाल नाटक- ’पैसों का पेड‘, ’समुद्र का पानी‘, ’जैसी करनी वैसी भरनी‘, ’जेब खर्च‘ आदि शामिल हैं।
डॉ. श्रीप्रसाद (१९३२- ’चिडयाघर की सैर‘, ’साथी मेरा घोडा‘, ’मेरी प्रिय बाल कहानियां‘, ’मेरे प्रिय शिशुगीत‘ सहित अनेक पुस्तकें,) का नाम जुबान पर आते ही न केवल एक वरिष्ठ पीढी का सौम्य, मृदुभाषी व्यक्तित्व नजरों के सामने आ जाता है बल्कि उनके द्वारा जीवन पर्यन्त अनेक विधाओं में रचा गया बालसाहित्य भी स्मरण हो आता है, शिशुगीतों के तो वे सिरमौर रचयिता थे, हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हिंदी में ज्यादातर शिशुगीत बिल्ली और चूहे को केंद्र में रख कर लिखे गए और हिंदी में ही क्यों अंग्रेजी बाल साहित्य में भी ऐसे शिशुगीतों की भरमार है, पर श्रीप्रसाद की कुछ बाल कवितायें और शिशुगीत इतर विषयों पर भी हैं।
इस काल के एक और स्मरणीय कवि राम बचन सिंह ’आनंद‘ (ज. १९३२, अरा, बिहार), ने बहुत ही सहज बाल साहित्य रचा, उनकी प्रमुख कृतियां, ’गाओे गीत सुनाओ गीत‘, ’बढे चलो तुम नन्हे राही‘, ’दीप और तारा‘, ’टेलेफोन‘ पर उनकी एक बहुत ही मनोरंजक बालकविता है-
सुन लो पंडत पोंगा/बिना तार अब चोंगा/चलता-फिरता कौर्द्लेस/लो बतियाता टेलेफोन।
’बाल भूषण‘, ’कंतक थैया घुनु मनईया‘, ’नाचो-गाओ‘, ’राष्ट्रप्रेम के गीत‘, ’टेसू की भारत यात्रा‘, ’अब्बा की खांसी‘ सहित अनेक बालोपयोगी पुस्तकों के जनक डॉ, श्रीकृष्ण चन्द्र तिवारी ’राष्ट्रबंधु‘ (१९३३-सहारनपुर) हमारे समय के पुरोधा बालसाहित्यकारों में से एक हैं। उन्होंने स्वयं तो विपुल बाल साहित्य रचा ही साथ ही नई पीढी के अनेक युवा, प्रतिभाशाली बालसाहित्यकारों को ’भारतीय बाल कल्याण संस्थान-कानपुर‘ के जरिये सम्मानित और प्रोत्साहित करके आगे बढाया। इस मायने वे सही अर्थों में हमारे पुरोधा बालसाहित्यकारों में गण्यमान हैं। ’कंतक थैया घुनु मनईया‘ में शामिल उनकी बाल कवितायें ग्राम्य और लोक शब्दावली का अद्भुत सामंजस्य प्रस्तुत करती हैं, शिशुगीतों में भी उनका अप्रतिम योगदान रहा है।
राष्ट्रबंधु की ही पीढी के विष्णुकांत पाण्डेय (१९३३) ने भी पशु-पक्षियों पर कुछ अद्भुत शिशुगीत रचे हैं और एक जमाना था जब ’धर्मयुग‘ तथा ’साप्ताहिक हिंदुस्तान‘ के बाल पृष्ठों पर उनके शिशुगीतों को बडे ही आदर के साथ छपा जाता था, उनका एक स्मरणीय शिशुगीत देखिये-
घोडा नाचे, हाथी नाचे, नाचे सोनचिरैया/ किलक-किलक कर बन्दर नाचे, भालू ता-ता थैया/ठुमक-ठुमककर खरहा नाचे, ऊंट, मन्ना गैया/आ पहुंचा जब शेर नाचने, मची-’हाय रे दिया।
बुलंदशहर, उत्तरप्रदेश में जन्मे रत्नप्रकाश शील (ज. १९३५), ने बच्चों के लिए ढेर सारा हास्य और जासूसी बाल साहित्य रचा है जिसमें बाल उपन्यास, बाल कहानियां, बाल कवितायें, चित्रकथाएं शामिल हैं अपने जमाने की मशहूर बालपत्रिका ’मिलिंद‘ के वर्षों तक संपादक रहने के बाद वे काफी समय तक ’नंदन‘ पत्रिका से जुडे रहे और भारत में जादूगरी को एक वैज्ञानिक कला का स्तर दिलवाने में भी उन्होंने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया, शील जी की प्रमुख रचनाओं में ’नन्हे जासूस‘ बाल उपन्यास श्ाृंखला काफी लोकप्रिय रही है।
हिंदी बाल कविता को जिन वरिष्ठ और वर्तमान कवियों ने नए तेवर और नया शिल्प दिया है उनमें बालस्वरूप राही (१९३६-दिल्ली, प्रमुख कृतियां- ’हम जब होंगे बडे‘, ’दादी अम्मा मुझे बताओ‘, ’सूरज का रथ‘) का नाम प्रमुख है, पारंपरिक ढंग से रची जाने वाली बाल कविताओं से वे दो कदम आगे जाकर नई सोच वाली बाल कविताएं रचते हैं जिनकी ताजगी और लयात्मकता देखते ही बनती है।
चुटीले शिशुगीतों और एक से एक मनोरंजक बालकविताएं रचने वाले डॉ. शेरजंग गर्ग (१९३७, देहरादून) हमारे वर्तमान वरिष्ठ बाल कवियों में से एक हैं, वयस्कों के लिए वे जितनी तीक्ष्ण और मारक व्यंग्य रचनाओं के लिए ख्यात हैं उतनी ही ख्याति उनकी बच्चों की नई सोच और नई काट की बाल कविताओं के लिए रही है।




 

Wednesday, April 19, 2023

पंडित जवाहरलाल नेहरू बाल साहित्य अकादेमी, राजस्थान, द्वारा जवाहर कला केन्द्र जयपुर में 29 मार्च 2023 को आयोजित बाल साहित्य महोत्सव का एक चित्र. का एक चित्र

 पंडित  जवाहर लाल नेहरू बाल साहित्य अकादेमी, राजस्थान, जयपुर मे 29 मार्च 2023 को आयोजित बाल साहित्य महोत्सव का चित्र जिसमें मेरी भी उपस्थिती रही।


Saturday, March 28, 2020

2008 की सुपरहिट फिल्म भूतनाथ में कैसे रचा गया बंकू का किरदार ?


2008 की सुपरहिट फिल्म भूतनाथ में कैसे रचा गया बंकू का किरदार ?  
जानिये फिल्म के लेखक/निर्देशक विवेक शर्मा की जुबानी
(Unedited text from his audio clip)


All images credit: Google search

बंकू character create करना मेरे लिए बहुत ज्यादा difficult  नहीं था because मेरी दीदी का बेटा था Tinshu जो बहुत ही poker face के साथ झूठ बोला करता था उससे मैं inspire हुआ था और वो टिफ़िन न खाए और तुलसी के  पौधों में दूध डाल कर pretend करता था कि उसने  दूध पी लिया है. और मैंने हमेशा observe किया कि animals & kids ,  ये बड़े नेचुरल  होते हैं. ये ज़रा भी pretentious यानी बनाबटी नहीं होते. बच्चों से अच्छा एक्टर कोई होता ही नहीं है. और देखिये कॉमेडी भी हमेशा वही work  करती है जो poker होती है. Loud या slapstick कामेडी उतनी ज्यादा work नहीं करती.


तो बंकू करेक्टर जो था वो हमारे दिमाग में था कि इसको हीरो बना के रखा जाए और भूतनाथ में जितना महत्त्व भूतनाथ का था या है उतना ही बंकू का है. बंकू और भूतनाथ का एक तरह से Tom & Jerry वाला combination है  और इसीलिये वे दोनों characters अमर हुए.  एक दूसरे की टांग खींचना,मस्ती करना एक दूसरे के साथ नए - नए adventures  करना. मेरी तो बड़ी desire थी  कि Cartoon Network  में मैं इसको एक Animation Series की तरह बनाऊं और उसे आगे ले कर जाऊं, पर वो हो नहीं सका. 
  बंकू character जब मैं select  कर रहा था उसी समय अमित जी का Surf Advance का एक Ad आ रहा था जिसमें वो स्कूल के प्रिंसिपल बने  the और एक बच्चा एडमिशन के लिए आता है. तो आप believe  नहीं करेंगे , बच्चन साब ने भूतनाथ play किया और उसी बच्चे ने बंकू का part  play किया क्योंकि उन दोनों की  chemistry,  उन दोनों की naughtyness  और unpredictable timing जो थी वो मुझे बहुत अच्छी लग रही थी. 



भूतनाथ में  अगर आप गौर करें तो Title Sequece के बाद पूरी की पूरी फिल्म उस बच्चे के Point of view से है. और आप लोगों को पता नहीं होगा पर जूही माँ (विवेकजी जूही चावला को जूही माँ सम्बोधित करते हैं) जो हैं वो बंकू नाम से थोड़ी सी परेशान थीं कि ये कैसा नाम है, ये नहीं रखेंगे कोई और नाम रखो. तो मैंने समझाया कि जैसे बंकिम नाम होता है...... बंकिम का शोर्ट फॉर्म बंकू..और ये  कौन सा  बड़ा अजूबा सा नाम है , बहुत इंट्रेस्टिंग  नाम है  तो आप देखिये फिल्म में कहाँ-कहाँ अडचनें होती है और उनको convince करने में मुझे थोडा time लगा. हमको फिल्म की स्क्रिप्ट में एक डायलाग पड़ा डालना पड़ा कि "वैसे इसका असली नाम अमन है लेकिन हम इसे प्यार से बंकू बुलाते हैं". और जब अमन सिद्दीकी जो real actor था उसने जब बंकू character  को आत्मसात किया तो  जीवंत कर दिया.उसकी जो timing थी, कमाल की थी . 



obviously बच्चे जो हैं वो  बड़े-बड़े डायलाग नहीं बोल पाते तो मैंने क्या किया शुरू-शुरू में छोटी छोटी lines दीं छोटे-छोटे sequences किये और धीरे-धीरे करके बंकू  बड़े sequence की तरफ गया.  बच्चन साब के introduction  का  जो scene था जिसमें कटोरी गिरती है और बच्चन साब जो भूत  हैं, बच्चे के सामने  पहली बार आते  है  वो बहुत लम्बा scene था  इसलिए .हम लोगों ने उसको बहुत जमा-टिका के अलग-अलग  cuts के साथ लिया और उसमें अमन सिद्दीकी यानी बंकू ने surprise कर दिया था हालांकि  उसको उस समय हल्का-सा फीवर भी था पर उसने वो  scene बहुत कमाल का किया .मैंने कोशिश भी की र्ह्व्व कि एक दो डायलाग कम कर दूं  पर बच्चन साब ने मुझे रोक दिया कि क्यों कर रहा है, करने दो उसे, अच्छा कर रहा है वो. तो बंकू करेक्टर क्रिएट करना  सबसे आसान भी था और difficult  भी था. 



अब एक बात बताता हूँ  मैंने इसकी  dialogue tone कैसे लिखी. मैं जब छोटा था तब मैं बड़ी  बहन को पोस्ट कार्ड में चिट्ठी लिखा करता था तब yellow colour का पोस्ट कार्ड आता था पचास पैसे का. तो उसमें जब मैं लिखता था तो  मेरे जीजा जी  हँसते थे कि कोई भी टॉपिक कहीं भी स्विच करता है जैसे  यहाँ सब ठीक है,   कल बारिश हुई, अच्छा ,,,,वो साइकिल की घंटी गिर गयी..यानी कोई कनेक्शन नहीं ... इस टॉपिक से उस टॉपिक का. मतलब  जो unpredictable way of conversation  होता है वो मैंने बंकू के character  रखा. जैसे...अचानक वो ये बोलता है अचानक वो बोलता है. एक तरह से वो story teller था वह मनगढ़ंत कहानियां रचता था कि मेरे घर में एक एंजेल आया फिर र्मैने ऐसे किया वैसेकिया ... उसके लम्बे-लम्बे नाखून थे जबकि एंजेल की बात कर रहा है वो, लेकिन description एक Devil का दे रहा है. तो वो जो मेरी खुद की एक child like habit थी-    सारी बातें कहना और एक साथ कहना और disjonted  तरीके से कहना. तो वो मुझमें अभी भी है  और उसमें मेरा ही reflection  एक प्रकार से बंकू में है. जैसे बंकू को जब चोट लगती है तो  उसके माथे पर मैंने वहीं निशान  दिया था जहाँ अमित जी जब गिरते हैं और उनके माथे पर चोट लगती है. इंटरवल  scene अमित जी का माथा छूकर वो बोलता भी है कि मुझे भी तुम्हारे जैसी चोट लग गई.


भूतनाथ में मैंने एक और बात रखी थी कि जब तक भूत का ह्रदय परिवर्तन नहीं होता तबतक बंकू और भूतनाथ एक दूसरे को physically नहीं छू पायेंगे और इसीलिये उसमें  हाथ से हाथ क्रॉस हो जाता है और  वो सीढ़ी से गिर जाता है. intermission के scene में माफ़ी मांगते समय  भूतनाथ उसका हाथ पकड़ता है उसके बाद उन दोनों का phisical touch शुरू हो जाता है और इस बात को मुझे गाने में बहुत संभालना पड़ा  इससे पहले जो "बंकू भैया कभी न हारे" song था और जो भी incidence  थे. कई बार  क्या होता है कि टेक्नीशियन, कोरियोग्राफर ये  बात भूल जाते हैं मगर डायरेक्टर को ये सब ध्यान में रखना पड़ता है. even भूतनाथ में एक अच्छी बात ये थी कि साउंड डिजाईन में हमने ध्यान रखा था  कि बच्चन साब जब तक भूत बन कर  रहते हैं तब तक उनकी फूट स्टेप्स यानी जूतों की आवाज नहीं आये .उनके जूतों की आवाज तब आती है जब बंकू उनको बोलता है सामने आओ, मम्मी के सामने आओ और फिर वे जूही चावला के पीछे से appear होते हैं और अपनी कहानी narrate करते हैं कि मेरे साथ हुआ क्या था.तो ये सारी चीजें हम लोगों ने बहुत अच्छी तरह से devise की हुई थीं.


और of course बंकू यानी अमन सिद्दीकी फिल्म की जान है. मुझे एक डिस्ट्रीब्यूटर /प्रोड्यूसर ने कहा था कि बच्चों पर बनी फिल्म कभी flop  नहीं होती क्योंकि हमेशा उसे पूरा परिवार देखने आता है.और मुझे ये सब ध्यान नहीं था हालांकि भूतनाथ को मैंने बच्चों की फिल्म की तरह ट्रीट नहीं किया लेकिन अपने आप  वो बच्चों के बीच इतनी पोपुलर हो गयी कि आज 11 साल हो गए हैं  फिर भी वह हर week टी वी पर दो से तीन बार आती है. और बच्चों को उसके डायलाग भी याद है. एक मेरे मित्र हैं उनकी भांजी  बंकू को देखने के बाद ही सुबह दूध पीती है. उनके पास डीवीडी भी पड़ी हुई हैं भूतनाथ की.
तो characterisation बच्चों का बच्चों जैसा  ही रखना पड़ता है. और बच्चों का जो एक चंचल, चपल शरारत करने का, झूठ बोलने का एक अंदाज़ होता है कि पकड़े न जाएँ.उनका एक excitement खटाक से सो जाते हैं, खटाक से उनको सू सू लग जाती है , खटाक से भूख लग जाती है. कभी-कभी जब उनका क्रिकेट खेलने का मन करता है ..तो वो कुछ भी करते हैं , तो वही टोन मैंने रखी और फिल्म जब serious होती है  तब बंकू को मैंने serious करना शुरू किया जैसे  अमन ने जो climex का scene था जहाँ वो छत पर जाकर भूतनाथ को देखता है और बोलता है - भूतनाथ वापस आओ वो आप believe नहीं करेंगे अमन ने one take में किया और हम लोगों ने वो जो साउंड उसका था नागरा  में रिकॉर्ड किया था  वही हमने फाइनल में भी use किया, हमने उससे dubbing नहीं कराई थी  क्योंकि इमोशनल scene जो हैं बच्चन साब भी dub नहीं करते और वही शूटिंग का साउंड ही use होता है. वह पूरा take बहुत कमाल का था मतलब अमन ने तो surprise ही कर दिया था. एक-एक छोटे छोटे nuances चाहे वो जूही जी के सामने हों चाहे शाहरुख़ के साथ हों या चाहे बच्चन साब के साथ हो, सतीश शाह जी के साथ हो, राजपाल  के साथ हो,  और उसकी timing  उसका दूसरे बच्चों के साथ खेलना. अब देखिये एक ही क्लास के अन्दर हमने बहुत सारे बच्चे रखे हुए थे  एक शरारती gang थी, एक friendly gang थी, सभी बच्चों ने अपना कमाल का करैक्टर पकड़ा हुआ था.  और जब बड़े डायरेक्टर्स को समझाने बुझाने में बहुत ध्यान  जाता है  छोटे बच्चों पे ध्यान नहीं रहता था यानि वो bother नहीं करते थे कि हमारे कपड़े ठीक हैं कि नहीं, हमारा मेकअप ठीक हैं की नहीं,   बस ये होता था कि एक ने सॉफ्ट ड्रिंक मंगाई  तो दूसरे को भी चाहिए, तीसरे को भी चाहिए एक ने अगर पिज़्ज़ा बोला तो दूसरे को भी चाहिए, तीसरे को भी चाहिए. इस तरीके से बच्चों के अन्दर जो एक innocent मासूम  approach होती है वो भूतनाथ के लिए बहुत work कर गई. और मैं आगे भी  क ख ग घ नंगा फिल्म के लिए कोशिश कर रहा हूँ,उसमें भी 10-15 बच्चे हैं उन बच्चों के through भी गाँव खेड़े के बच्चों को मैं अलग से reflect कर पाऊं.###

प्रस्तुति: रमेश तैलंग 

Saturday, February 22, 2020

युवावर्ग को आकर्षित कर रही है विवेक शर्मा की फिल्म 
" A GAME CALLED RELATIONSHIP"
(ए गेम काल्ड रिलेशनशिप)



" ए गेम काल्ड रिलेशनशिप", महानायक अमिताभ बच्चन को भूतनाथ फिल्म में निर्देशित करने वाले विवेक शर्मा की अपने बैनर Filmzone Creations LLP" तले प्रदर्शित होने वाली पहली  फिल्म है जो रोमांटिक कामेडी है और  पिछले दो हफ़्तों से दर्शकों, खास तौर से युवा वर्ग को लगातार आकर्षित कर रही है. 

  विवेक शर्मा  न केवल इस फिल्म के प्रोड्यूसर,निर्देशक, लेखक,  वितरक भी हैं. बल्कि इन चार भूमिकाओं के अलावा उन्होंने फिल्म में अभिनेता के रूप में भी पहली बार entry की है.एक चुलबुले फिल्म डायरेक्टर के  किरदार में उनकी कामेडी दर्शकों को भाती है. फिल्म के अन्य मुख्य कलाकार मैंडी तखर, कपिल खादीवाला, सुमित सूरी, सबीना, फैज़ल शाह, सुमन मिश्रा, आदि ऐसे नाम हैं जो कुछ  दर्शकों के लिए नए  हो सकते हैं लेकिन यकीन मानें वे इतने नए भी नहीं हैं. उनके बारे में मैं आगे लिखूंगा लेकिन पहले आपके इस संभावित सवाल का जवाब दे दूं कि आप " A GAME CALLED RELATIONSHIP" फिल्म को आखिर क्यों देखें?   


पहली बात, यदि आप फिल्म के title और  पोस्टर्स को देखकर कोई गलत  धारणा बना चुके  हैं तो उसे दिल से निकाल दें क्योंकि यह बहुत ही साफ़-सुथरी और मनोरंजन से भरपूर फिल्म है जो content-wise भी आपको अंत तक  involve किये रहती है . दूसरी बात इसकी उत्कृष्ट सिनेमेटोग्राफी और खूबसूरत लोकेशंस आप को अवश्य पसंद आयेंगीं. (खबर  है कि इस फिल्म की शूटिंग मुंबई के अलावा उज्जैन, इंदौर और मांडू जैसी नामचीन जगहों पर की गई है. तीसरी बात, इस फिल्म में विवेक शर्मा, का एक नया अवतार हुआ है कॉमेडी एक्टर का. उनका तकिया कलम सोडा मंगाओ दर्शकों को ज़रूर याद रहेगा. . चौथी बात, फिल्म dogmatic नहीं है पर  उसमें एक सोशल मेसेज है कि कोइ भी relationship game नहीं होती और  यदि उसे game की तरह खेला जाए तो उसके खतरनाक परिणाम हो सकते हैं.

फिल्म की कथा और किरदारों की बात करें तो इसकी  केंद्रीय भूमिका में शाना (मैंडी  तखर ) और कबीर (कपिल खादीवाला) की  सेलिब्रिटी जोड़ी है जो कुछ सालों से लिव इन रिलेशनशिप में रह रही है. इस जोड़ी की ज़िन्दगी में कुछ ऐसा युवा आते हैं जिनके अपने कुछ सपने हैं और जो महत्वाकांक्षी अभिनेता बनना चाहते हैं.



तीन लड़के और तीन लड़कियां जिनकी communication लिंक है फैज़ल शाह . जब शाना और कबीर अपने relationship  के breakup का झूठा नाटक करते हैं तो लड़के शाना पर और लड़कियां कबीर पर डोरे डालना शुरू कर देती हैं. फिल्म में चुलबुले डायरेक्टर गौतम का किरदार निभानेवाले विवेक शर्मा भी शाना से flirt करने में नहीं चूकते..अब शाना और कबीर की लिव इन रिलेशनशिप और उनके so called breakup का नया खेल शुरू होता है जो स्टोरी को कुछ new twists के साथ एक happy ending तक ले जाता है. सारांश में कहें  तो यह फिल्म हलके-फुल्के अंदाज में रोमांस और मनोरंजन का भरपूर तड़का देती है. 



जहांतक पार्श्व संगीत और गानों का प्रश्न है तो व्यक्तिगत रूप से मुझे लगा कि उसमें improvisation की और भी गुंजाइश थी. हालांकि नकश अजीज इस फिल्म से पहले दिलवाले, बजरंगी भाईजान और fan जैसे हिट फिल्मों से अपना नाम कमा चुके हैं.
फिल्म की सीमाओं की बात करें तो सबसे पहली सीमा तो यही है कि यह mega-budget फिल्म नहीं है और न ही इसकी  cast बहुत बड़ी है. हालांकि   मैंडी तखर पंजाबी फिल्मों में एक जाना-पहचाना नाम है, कपिल खादीवाला प्रसिद्ध मॉडल रहे हैं और फिल्मों में उनका आगमन काफी नई  संभावनाएं जगाता है. सुमन मिश्रा (जिनके वेब साइट्स पर अनेक नाम मिलते हैं : मसलन - Sumann, Jugnu Ishiqui )भी जानी मानी मॉडल होने के साथ कई फिल्मों में काम कर चुकी हैं. उनकी अपनी एक वेबसाइटभी  है -iamsumann.com. सबीना और  सुमित सूरी भी ग्लैमर की दुनिया में अनजाने नहीं हैं.



विवेक शर्मा ने इस फिल्म में as an actor, debut किया है लेकिन उनकी comic timing गज़ब की है.. पूरी फिल्म में vulgarity कहीं नहीं है,  ( उसमें एक डायलाग भी है "अपनी roots नहीं छोड़ी जाती..) और उसमें वो elements जानबूझ कर नहीं रखे गए हैं जो आजकल धड़ल्ले से वेब पर बेचे जा रहे हैं.  फिल्म को विवेक शर्मा ने बहुत ही meticulously  देश के चुने हुए सिनेमागृहों में चुने हुए show-timings के साथ प्रदर्शित किया है. इसमें उनकी अपनी strategy और अपनी limitations हो सकती हैं. चूंकि विवेक शर्मा के अपने बैनर Filmzone Creations LLP" तले प्रदर्शित होने वाली यह पहली  फिल्म है जिसे मलंग और शुभ मंगल ज्यादा सावधान जैसी बड़े बजट और mega publicity वाकी फिल्मों के बरक्स velentine day पर मैदान में उतरा गया है, इसलिए उन्होंने हर तरह से पूरी सावधानियां बरती हैं. बड़े प्रचार तंत्र के अभाव में फिल्म सीमित दर्शकों तक पहुँच रही है लेकिन इस प्रदर्शित दो हफ्ते हो चुके हैं जो अपने आप में इसकी सफलता का प्रमाण है.

विवेक शर्मा के पास अभी काफी नई प्रोजेक्ट्स हैं, पटकथाएं हैं, और इस बारे में वे अपने साक्षत्कार में कई बार बता भी चुके हैं, आशा की जानी चाहिए कि उनकी आने वाली फ़िल्में भारतीय फिल्म उद्योग की यात्रा में नया मुकाम हासिल करेंगीं.

- रमेश तैलंग
M.92 11 688 748
email: rtailang@gmail.com

Friday, February 22, 2019

एक सक्षम फिल्म निर्देशक और सहृदय शायर  के रूबरू होना


- रमेश तैलंग : 22.02.2019




विवेक शर्मा की बात करें तो उनकी पहली पहचान तो फिल्म निर्देशक की ही रही  है। निर्देशक के रूप में उनकी पहली फिल्म भूतनाथ थी जो 2008 मे रिलीज हुई और जिसमें अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान, जुही चावला, राजपाल यादव, और प्रियंशु चटर्जी जैसे दिग्गज अभिनेताओं के साथ  बाल कलाकार अमन सिद्दीकी (स्क्रीन नेम - बंकू ) ने  सभी दर्शकों का मन मोह लिया।  भूतनाथ वो फिल्म थी जिसने  विवेक शर्मा को हिन्दी सिनेमा के सफल फिल्म निर्देशकों  की पहली पायदान  पर खड़ा कर दिया हालांकि यहाँ यह भी बतादूँ कि इस फिल्म में  निर्देशन के अलावा स्क्रीन प्ले और डाइलॉग  लेखन में भी उनका महत्वपूर्ण अवदान था।

मैं कहना ये चाहता हूँ कि विवेक शर्मा  जितने सक्षम  फिल्म निर्देशक हैं उतने ही संवेदनशील,   सहृदय कवि, लेखक और स्क्रीन रायटर भी हैं।


यह इत्तेफाक ही है कि मेरी उनसे पहचान एक शॉर्ट फिल्म की स्क्रिप्ट के जरिये हुई जिसे मैंने उनके पास भेजा था  और जो अभी मुकम्मल फिल्म के रूप में आने की बाट जोह रही है। सोशल मीडिया पर तो मेरा विवेक से  निरंतर संवाद रहा है लेकिन उनसे जब  पहली व्यक्तिगत मुलाक़ात हुई तो उन्हे  देखकर मुझे लग गया था कि इनसे अपनी पटरी सही बैठेगी। एक तो वे जबलपुर मध्यप्रदेश के हैं इसलिए उसी प्रदेश का होने के नाते मेरा आत्मीय नाता उनसे जुड़ा हुआ है। दूसरे, खास बात यह है कि  फ़िज़िक्स में मास्टर डिग्री लेकर भी वे साहित्य के परम अनुरागी हैं. भूतनाथ के अलावा उनके खाते मेंअभी कुछ और फिल्में   हैं  जो निर्माणाधीन हैं लेकिन इतना तो तय है कि उनका cinematic vision और  dedication गजब का है। संवेदनशील होने के नाते उनका साहित्य से अनुराग स्वाभाविक है और यह महत्वपूर्ण इसलिए है कि वर्तमान में फिल्म और साहित्य का नाता अत्यधिक झीना हो गया है।

विवेक शर्मा की शायरी की पहली किताब "मोहब्बत उर्दू है" (नुक्तों की गैरमौजूदगी के लिए क्षमा करें) जब प्रकाशित हो कर सामने आई तो  उसकी सूचना और मानार्थ प्रति उन्होने अपने आत्मीय जनों मे शामिल कर मुझे भी दी। इस किताब से गुजरते हुए मैं  एक बात पहले ही रेखांकित  कर दूँ कि ये पंक्तियाँ विवेक शर्मा की शायरी की किताब की मुकम्मल समीक्षा नहीं है.। इस किताब की  कुछ विशेषताएँ हैं जिन्हें अपनी टिप्पणी के साथ मैं आपके समक्ष रखना चाहता हूँ।


पहली बात तो यह, कि इस किताब को शायरी के साथ रंगीन तस्वीरों के साथ बहुत ही खूबसूरती से सजाया गया  है। इस खूबसूरत संयोजन के कुछ फायदे भी हैं और नुकसान भी हैं _ "लफ़्ज़ जहां खामोश हुए तस्वीर वहाँ पर बोल उठी  "। आर्ट पेपर पर छपे   लगभग 60  प्रष्ठों में सिमटी इस किताब में  विवेक शर्मा ने अलग अलग "मूड्स" के साथ अपने दिली जज़्बातों को जुबान दी है। ये शायरी निश्चित रूप से मयारी  शायरी  नहीं है लेकिन

 


उसमें एक कवि एक शायर की ईमानदारी हर जगह नज़र आती है। कुछ शेरों का मिजाज रूमानी है  तो कुछ शेर ज़िंदगी के फलसफे का  बयान करते हैं और किसी शेर मे  शायर की :ख़्वाहिश  अपने  बचपन में खो जाने की ओर इशारा करती है। ( बादलों में खोना चाहता हूँ/मैं कुछ होना चाहता हूँ/नहीं होना मुझे बड़ा/मैं बच्चों सा रोना चाहता हूँ/"

एक खास बात और  कि विवेक मोहब्बत को अलग अलग समय पर या अलग अलग मूड  में कभी उर्दू तो कभी खुशबू की मानिंद देखते हैं और कभी ये भी कह पड़ते हैं - " के लफ्जों से ये बयां नहीं होती /जहां मोहब्बत है वहाँ जुबां नहीं होती/"

माँ के प्रति विवेक शर्मा का अप्रतिम आदर और अनुराग है इसीलिए एक जगह वे कहते हैं -"मांग ले मन्नत कि ये जहां मिले/मिले वही गोद फिर वही माँ मिले/"


मेरा मानना है कि मुखतलिफ़ मूड्स  की ये मुखतलिफ़  शायरी आज के  युवा वर्ग को अवश्य पसंद आएगी, हाँ,  मयारी शेरो-शायरी के हुनर और फ़न के उस्तादों की, हो सकता है इस किताब के बारे मे अलग राय हो, पर यहाँ यह भी नहीं भूलना चाहिए कि कवि या शायर के रूप मे  विवेक शर्मा की यह पहली किताब है। बेलाग शायरी के अलावा  अपनी साज-सज्जा मे  ये इतनी खूबसूरत है कि उसे देखकर ईर्ष्या होती है और मन मेँ सवाल उठता है कि हिन्दी/उर्दू के प्रकाशक  साहित्यिक iपुस्तकों  की साजसज्जा पर समुचित ध्यान देने मे कंजूसी क्यों करते हैं?

इस किताब के प्रकाशन पर , मैं विवेक शर्मा को हार्दिक शुभकामनायें देता हूँ और चाहता हूँ कि वे सिनेमा और साहित्य की दो धारी तलवार पर अपने कदम रखने से पीछे न हटें...हम जैसे साहित्य-प्रेमियों के लिए उनका यह महत्वपूर्ण  देय भी  होगा और प्रेय भी ।






Sunday, March 18, 2018

कोई ढूंढियो री!

कोई  ढूंढियो री!

कोई ढूंढियो री! अम्मां ढूंढियो री!
मेरे बस्ते ने चुरा ली, मेरे बस्ते ने चुराली
मेरी आँखों की नींद, 
मेरी रातों की नींद ,
कोई ढूंढियो री! अम्मां ढूंढियो री!

कोई ढूंढियो री! चाची! ढूंढियो री!
मेरी बुक्स  ने चुरा ली, मेरी बुक्स  ने चुराली
मेरी आँखों की नींद, 
मेरी रातों की नींद ,
कोई ढूंढियो री! चाची  ढूंढियो री!

कोई ढूंढियो री! भाभी! ढूंढियो री!
मेरे होमवर्क  ने चुरा ली, मेरे होमवर्क ने चुराली
मेरी आँखों की नींद, 
मेरी रातों की नींद ,
कोई ढूंढियो री! भाभी  ढूंढियो री!

कोई ढूंढियो री! मैडम  ढूंढियो री!
मेरे एग्जाम  ने चुरा ली, मेरे एग्जाम  ने चुराली
मेरी आँखों की नींद, 
मेरी रातों की नींद ,
कोई ढूंढियो री! मैडम! ढूंढियो री!

- रमेश तैलंग / 19/03/2018